सत्रह वर्षों बाद........
बरसों बाद ढही मस्जिद फिर
बरसों बाद गिरा मंदिर भी,
काले-सफ़ेद कोटों से घिर कर
दब गयीं तड़पती आवाजें भी |
कुछ काले-सफ़ेद कपडेवालों ने
मिल कर रौंदा मन के मंदिर को,
उनके पहले "भगवा" वालों ने
कुचला मस्जिद की दीवारों को |
कुचले जाने, रौंदे जाने के
बीच में बरसों बीत गए,
जीवित जो थे वो जिए नहीं
मारा जिसने वो जीत गए |
शर्मिंदा हूँ, मैं जिन्दा हूँ
इस देश का मैं बाशिंदा हूँ,
ना मुस्लिम हूँ, ना हिन्दू हूँ,
फिर भी कैसे मैं जिन्दा हूँ!!!!
- राजेश अमरनाथ पाण्डेय
१९ नवम्बर २००९
1 comment:
hi , nice poem , u r one of the few who r human , not Hindu , Muslim or Cristian . but that's not enough . there is bigger picture u must se that too .
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