Monday, May 14, 2007

बसपा का अप्रत्याशित उभार

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित जीत से प्रदेश के साथ-साथ देश की राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन आना स्वाभाविक है। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी रणनीति शेष सभी दलों पर भारी पड़ी। वैसे तो सारे एक्जिट पोल बसपा को सबसे बड़े दल के रूप में उभार रहे थे, लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत मिलने की उम्मीद किसी को नहीं थी। संभवत: ऐसी राजनीतिक सफलता की उम्मीद बसपा सिपहसालारों को भी नहीं रही होगी। उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद किसी दल को बहुमत मिलना इस राज्य के लिए एक प्रकार से दैवीय सौैगात है। बहुमत प्राप्त बसपा सरकार को अपने स्थायित्व को लेकर कोई संदेह नहीं रहेगा। उसे अन्य दलों से सहयोग की जरूरत नहीं रह गई है। इस स्थिति में सरकार सारा ध्यान प्रदेश के विकास में लगा सकती है। चूंकि मायावती इसके पहले भी तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं अत: उन्हें शासन चलाने का अच्छा-खासा अनुभव है। वह इससे अवगत होंगी कि राज्य की समस्याएं क्या हैं? यदि उन्होंने अपने शासन की प्राथमिकताएं सही तरह से तय कर लीं तो प्रदेश के विकास के प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है। मायावती इसके पहले तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचीं, लेकिन किन्हीं कारणों से वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। इस बार ऐसे कोई कारण नहीं नजर आते कि वह पांच साल सरकार न चला सकें। अपने पिछले कार्यकालों में मायावती दलितों की मसीहा के रूप में उभरीं। उन्होंने अपना जनाधार बढ़ाने के लिए मुसलिम समाज को अपने साथ जोड़ा और जब उससे भी बात नहीं बनी तो पिछड़ी जातियों और विशेष रूप से कुर्मियों का सहारा लिया। एक समय कुर्मी नेता बसपा में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचे, लेकिन धीरे-धीरे वे छिटक गए। बात चाहे सोनेलाल पटेल की हो अथवा बरखू राम वर्मा की, कोई भी बसपा में ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया। समय-समय पर बसपा में महत्वपूर्ण स्थान पाने वाले अन्य नेता भी उससे अलग होते रहे। इसके बावजूद बसपा का जनाधार बढ़ता रहा, लेकिन वह व्यापक रूप नहीं ले सका। मायावती ने जब सतीशचंद्र मिश्र के सहयोग से ब्राह्मणों को बसपा के साथ जोड़ने की कोशिश की तो उनके इस प्रयोग की सफलता को लेकर संदेह था, लेकिन आज इस दल में हर वर्ग के नेता मौजूद हैं। मायावती ने ब्राह्मणों को बड़ी संख्या में टिकट देकर एक तरह से कांग्रेस के पुराने फार्मूले को अपनाया, लेकिन उनकी कामयाबी कहीं अधिक ठोस है। बसपा सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करने वाले दल के रूप में उभरी है। खास बात यह है कि उसे प्रदेश के सभी क्षेत्रों में एक जैसी सफलता मिली है। पिछले 16 वर्षो से राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त रहे प्रदेश में स्थिर सरकार बनने का लाभ सभी को मिलना चाहिए। मायावती ने चुनाव जीतने के बाद अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में जिस तरह यह कहा कि गुंडाराज का अंत हुआ उससे उनका तात्पर्य प्रदेश में अपराध के बढ़ते आंकड़ों की तरफ ही था। अपराध बढ़ने के अनेक कारणों में एक कारण रोजगार की संभावनाएं अत्यधिक कम होना भी होता है। जब काम की तलाश में भटक रहे युवाओं को रोजगार नहीं मिलता तो उनका एक तबका छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त हो जाता है। तीव्र औद्योगिक विकास प्रदेश की प्राथमिकता बननी चाहिए, क्योंकि इससे ही रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होंगे। औद्योगिक विकास में एक बड़ी बाधा बिजली की कमी है। इसके अतिरिक्त सरकारी मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार और नौकरशाही का नकारात्मक रवैया भी उद्योगों के विकास में बाधक है। प्रदेश के औद्योगिक विकास के समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उद्योग केवल दिल्ली के इर्द-गिर्द ही न सिमट जाएं। उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य है। राज्य के सभी क्षेत्रों की जनता की खुशहाली के लिए प्रत्येक इलाके में औद्योगिक क्रांति लाने की आवश्यकता है। चूंकि उत्तर प्रदेश मूलत: कृषि प्रधान राज्य है इसलिए कृषि क्षेत्र में भी ठोस कदम उठाने की जरूरत है। अपने पिछले कार्यकालों में बसपा सरकार प्रदेश के विकास में कोई विशेष योगदान नहीं दे सकी। इसके लिए एक हद तक उस वक्त के राजनीतिक हालात भी उत्तरदायी थे, लेकिन अब बसपा सरकार का लक्ष्य सामाजिक समरसता व औद्योगिक विकास होना चाहिए। बसपा की अप्रत्याशित जीत का देश की राजनीति पर प्रभाव अभी से नजर आने लगा है। शीघ्र होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में बसपा की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। वैसे तो कांग्रेस ने बसपा के साथ मिलकर काम करने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन अपने बलबूते सरकार बनाने में सक्षम हो जाने के बाद यह समय ही बताएगा कि इन दोनों दलों के कैसे रिश्ते बनते हैं? यदि बसपा ने कांग्रेस समर्थित राष्ट्रपति के उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया तो उसके लिए अपने प्रत्याशी को जिताना कठिन हो जाएगा, क्योंकि यह साफ है कि सपा कांग्रेस के उम्मीदवार का विरोध करेगी। बसपा ने समाज के हर तबके को अपने साथ जोड़कर जो राजनीतिक सफलता हासिल की उससे प्रभावित होकर अन्य प्रदेशों में भी राजनीतिक दल इसी रणनीति को अपनाने का प्रयास करेंगे, लेकिन वर्तमान में मतदाता केवल जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर ही मतदान नहीं करता। वह यह भी देखता है कि ऐसे समीकरण बनाने वाले दल अपने प्रयासों के प्रति कितना गंभीर हैं और वे सत्ता में आने तथा सही तरह से शासन चलाने की क्षमता रखते हैं या नहीं? उत्तर प्रदेश में सपा ने विकास के चाहे जितने दावे क्यों न किए हों, राज्य की जनता पिछड़ेपन से त्रस्त बनी रही। यही कारण रहा कि जनता ने सपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। सपा से नाराज लोगों का वोट भाजपा या कांग्रेस के खाते में न जाकर बसपा की झोली में इसलिए गिरा, क्योंकि ये दोनों राष्ट्रीय दल खुद को सशक्त विकल्प के रूप में नहीं पेश कर सके। जहां कांग्रेस ने राहुल गांधी को अत्यधिक देर से मैदान में उतारा वहीं भाजपा अंदरूनी कलह से मुक्त नहीं हो सकी। राहुल गांधी को मीडिया ने तो हाथों हाथ लिया, लेकिन उनके रोड शो में आई भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो सकी। भाजपा ने अपने तमाम दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा, लेकिन वे मतदाताओं का विश्वास नहीं जीत सके। उत्तर प्रदेश सरीखे बड़े राज्य में इन दोनों राष्ट्रीय दलों की जो स्थिति बनी उस पर उन्हें ईमानदारी से आत्ममंथन करना चाहिए। आज के दौर में केवल मीडिया में छाये रहने वाले दल मतदाताओं के बीच अपनी जगह नहीं बना सकते। कांशीराम के देहांत के बाद जो राजनीतिक पंडित बसपा को पहले जैसा सक्षम नहीं मान रहे थे उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी। वैसे यह समय बताएगा कि बसपा ने जिस सोशल इंजीनियरिंग के जरिए उत्तर प्रदेश में विजय पाई उसका ही सहारा लेकर वह देश की राजनीति में अहम भूमिका निभा पाएगी या नहीं? ऐसी किसी भूमिका का निर्वाह करने के लिए उसे उत्तर प्रदेश में कुछ करके दिखाना होगा। यदि बसपा उत्तर प्रदेश में अपने शासन के जरिए कोई चमत्कार कर दिखाती है तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य प्रदेशों में भी अपनी पैठ बनाकर वह राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लेगी।

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