Monday, May 14, 2007
न्यायिक सुधार का रास्ता
हाल ही में हुए केएन काटजू मेमोरियल लेक्चर में कई ऐसी बातें उभर कर आई जो भारत की न्यायपालिका के लिए काफी चौंकाने वाली हैं। सेमिनार में देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, पूर्व कानून मंत्रियों, प्रख्यात वकीलों व वर्तमान जजों सहित कई संसद सदस्यों ने भी भाग लिया। सबसे ज्यादा खरी-खरी बात पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री अरुण जेटली ने न्यायपालिका के बारे में कही। उनका कहना था कि इस देश में नेता की तो जवाबदेही है,उसे सजा भी मिल जाती है और अपनी गलतियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है, लेकिन जजों की कोई जवाबदेही नहीं है। कोई व्यक्ति यदि जज बन जाता है तो वह बीस साल तक कुछ भी करे उसके खिलाफ कुछ भी नहीं होता है। महाभियोग का प्रावधान इतना जटिल है कि आज तक किसी जज को उसकी सजा नहीं मिली। अब जब जजों के खिलाफ अनेक शिकायतें सामने आ रही हैं तब न्यायपालिका और इस देश के लोगों को सोचना पड़ेगा कि जजों की जवाबदेही कैसे तय हो? अरुण जेटली का कहना था कि यदि किसी नेता के खिलाफ कोई मामला आता है तो सबसे पहले मीडिया उसके पीछे पड़ जाती है और स्वयं ही उसका पूरा ट्रायल करके समाज में उस नेता की छवि ध्वस्त कर देता है। इसके बाद सरकारी एजेंसियां और न्यायपालिका उसके पीछे पड़ जाती हैं और उसे सजा देकर छोड़ती हैं। यही नहीं, जनता भी हर पांच साल में उसकी परीक्षा लेती है और सजा देकर घर में बिठा देती है, लेकिन एक जज के लिए ऐसा कुछ भी नहीं होता। मीडिया हमला करने से कतराता है, सरकारी एजेंसियां झिझकती हैं और न्यायपालिका अपने जजों के पीछे क्यों पड़ेगी? ऐसे हालात में अनियमितता करने वाले जज बीस साल तक बैठे रहते हैं और उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता है। यही हाल कमोवेश अफसरों का भी है। अफसर भी बचे रहते हैं। जेटली का कहना था कि सरकारों के काम में न्यायपालिका पूरी तरह हस्तक्षेप करती है और इस हस्तक्षेप की वजह यह बताती है कि जब सरकार या कार्यपालिका अपना काम पूरा नहीं कर पा रही है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा और आदेश देना पड़ेगा। अरुण जेटली के मुताबिक यदि यही तर्क सरकार या कार्यपालिका न्यायपालिका के खिलाफ देने लगे तो जजों को कैसा लगेगा? उदाहरण के लिए दुनिया जानती है कि ढाई करोड़ मुकदमे अदालतों में सालों से लटक रहे हैं और लोग न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जज फैसले नहीं दे पा रहे हैं। इन हालात में यदि सरकार यह कहे कि चूंकि न्यायपालिका अपना काम नहीं कर पा रही है इसलिए सरकार ये सारे मुकदमे खुद निपटाएगी तो क्या न्यायपालिका इसे बर्दाश्त करेगी? इसमें कोई शक नहीं कि जेटली के इन तर्को का वहां बैठे जजों के पास कोई जवाब नहीं था। उल्टे एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बातों का समर्थन किया। जस्टिस जेएस वर्मा ने तो यहां तक कहा कि जजों की नियुक्ति के फैसले में मैंने सरकार के लिए पूरी गुंजाइश छोड़ी है। अगर सरकार को यह लगता है कि किसी व्यक्ति की छवि जज बनने लायक नहीं है तो वह फाइल लौटा सकती है और जजों की समिति उस पर कुछ भी करने के लिए अधिकृत नहीं है। सरकार को अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए। सरकार को यह गलतफहमी निकाल देनी चाहिए कि वरिष्ठ जजों की कमेटी को ही सारे अधिकार हैं। दरअसल लोगों ने उस आदेश का मतलब गलत निकाल लिया है। जब यह बहस चल रही थी तो के एन काटजू के पौत्र एवं सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज मार्कडेय काटजू भी मंच पर बैठे थे और हर बात को सहमति दे रहे थे। दूसरे दिन एक टीवी चैनल में भी इसी तरह की बहस हो रही थी, जिसमें न्यायपालिका की नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा रहे थे। बहस में पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने खुलकर कहा कि जजों को यह अधिकार किसने दिया है कि खुद ही आदेश करके तमाम सुविधाएं अपने नाम कर लें। उन्होंने यह भी कहा कि जजों की नियुक्ति और पदोन्नति में सिर्फ वरिष्ठ जजों की ही कमेटी को सारे अधिकार देने की व्यवस्था गलत है। जब सरकार और न्यायपालिका द्वारा मिलकर जजों की नियुक्ति की जाती थी तब बेहतर और गुणवत्ता वाले जजों की नियुक्ति हुई। जब से यह अधिकार सिर्फ जजों की कमेटी को मिला है तभी से विवादास्पद जजों की नियुक्तियां हो रही हैं और तरह-तरह की शिकायतें आ रही हैं। रविशंकर प्रसाद की बात का प्रख्यात अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी खुलकर समर्थन किया। वस्तुत: सबका यह कहना था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सरकार को भी शामिल करना चाहिए। यह कार्य सिर्फ जजों के ऊपर ही नहीं छोड़ा जाना चाहिए। उक्त बहस से एक बात और निकल कर आई कि जो परिषद जजों के बारे में शिकायतों की सुनवाई करेगी उसमें सरकार के भी प्रतिनिधि होने चाहिए। मुख्य न्यायाधीश और कानून मंत्रालय ने मिलकर यह तय किया है कि संसद के अगले सत्र में राष्ट्रीय न्यायिक परिषद बनाने का विधेयक लाया जाएगा, जिसमें ऐसे जजों पर अंकुश लगाने का काम होगा जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। इस परिषद में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम जज और उच्च न्यायालयों के सबसे वरिष्ठ दो मुख्य न्यायाधीश भी होंगे। यह परिषद मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट और देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों के जजों के बारे में शिकायत सुनेगी और उनकी जांच करेगी। यदि कोई व्यक्ति किसी जज के खिलाफ मजबूत शिकायत करता है तो यह परिषद उसकी तत्काल जांच करेगी और इस दौरान उस जज के अदालत में बैठने पर रोक लग जाएगी। अभी तक जो प्रावधान हैं उसमें न तो आप किसी जज की शिकायत कर सकते हैं और न ही कोई जांच होती है। इसके विपरीत जज के खिलाफ बोलना अदालत की अवमानना माना जाता है। अब यह सारी बात खत्म हो जाएगी और कोई भी किसी भी जज के खिलाफ शिकायत कर सकेगा। यही नहीं, यदि किसी जज के विरुद्ध संगीन मामले हैं और पचास संसद सदस्य हस्ताक्षर करके उसके खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष को लिखकर देते हैं तो लोकसभा अध्यक्ष उस जज को संसद बुलाकर उसका ट्रायल करेंगे। पिछले कुछ सालों से कुछ जजों के खिलाफ तमाम शिकायतें आ रही हैं। जब जस्टिस वीएन खरे मुख्य न्यायाधीश थे तो उन्होंने ऐसे कुछ जजों पर कार्यवाही भी की थी और कुछ का तबादला भी किया था। जस्टिस लाहौटी के जमाने में भी यह बात सामने आई थी और राष्ट्रीय न्यायिक परिषद बनाने की मांग हुई थी। जस्टिस लाहौटी ने उसमें तमाम संशोधनों की बात की थी। एक महत्वपूर्ण संशोधन यह भी था कि शिकायतकर्ता को पूरा संरक्षण दिया जाए और उसका नाम गुप्त रखा जाए। हाल ही में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सब्बरवाल और कुछ मौजूदा जजों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए हैं। यदि इस तरह की न्यायिक परिषद बनती है और उसमें जजों के अलावा समाज के अन्य वर्गो के लोगों को भी शामिल किया जाता है तो मुझे विश्वास है कि उससे न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है।
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