Friday, December 25, 2009

हिंसक समर

हिंसक समर

आंसू मैं बहाते हुए निकला, कब्रिस्तान के अँधेरे से,
जहन दफ़न किया जा रहा है मिलकर,
मनुष्यता को निर्मम बनकर,
जानते हुए भी कि कुछ न बचेगा,
आने वाली पीढ़ियों के लिए,
जन्म लेने में भी जिनके भाग्य को छोड़ कर,
लगाया जा रहा है सुरुचि का हिसाब,
हिंसक ह़ो चुके हैं हम, जाने कब क्यों कैसे
प्रेम के पल्लू को झाड़ते नहीं कटते हैं,
देख रहा हूँ मैं उस हिंसक समर को,
जो छिड़ा है मनुष्य और आदमी के बीच,
लग रहा है जीत जाएगा आदमी इसमे
 करके मनुष्य का संहार,
अरे लो!!!.....गिर गया धड सर से अलग होकर,
तड़प रहा है वो अब तक,
मरने से उसके आदमी जो खड़ा था तान कर सीना,
घुटनों पर बैठने को विवश ह़ो गया है....

राजेश अमरनाथ पाण्डेय
११-१२-१९९४

1 comment:

Udan Tashtari said...

गहरी अभिव्यक्ति!