Monday, May 14, 2007

अमेरिका से लौट रहे हैं आइटी पेशेवर

न्यूयार्क। भारत में तेजी से हो रहे अर्थव्यवस्था के विकास और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में आए उछाल से आकर्षित होकर अधिकाधिक संख्या में भारतीय सिलिकन वैली से स्वदेश लौट रहे हैं।
द इंडस एंटरप्रीनियर ग्रुप (टीआईई) का अनुमान है कि हाल के वर्षो में लगभग 60000 भारतीय स्वदेश लौट चुके हैं।
इस प्रवृत्तिका प्रभाव अमेरिका में सर्वाधिक सिलिकन वैली पर ही पड़ा है। टीआईई ने 2003 में कहा था कि 15000 से 20000 भारतीय वापस जा चुके हैं। संगठन के चार्टर सदस्य विश मिश्रा ने सान जोस मर्करी न्यूज को बताया कि यह प्रवृत्तिजारी है और पिछले चार साल में करीब 40000 और भारतीय स्वदेश लौट चुके हैं।
मिश्रा ने कहा कि भारत में पूंजी का प्रवाह भी बढ़ा है। इसका अधिकतर भाग सिलिकन वैली से आ रहा है। मिश्रा क्लीयरस्टोन वेंचर्स का साझीदार भी है।
क्लीयरस्टोन वेंचर्स का अब मुंबई में दफ्तर भी है। ऐसे ही कई और कंपनियों ने भी अपने दफ्तर वहां खोले हैं।
मिश्रा ने कहा कि अगस्त 2006 में समाप्त हुई 12 महीने की अवधि के दौरान विभिन्न कंपनियों ने अलग-अलग कंपनियों में दो अरब डालर का निवेश किया।

किसको कितनी सीटें (नतीजे) 2007

यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम : (सीट-402/402)
पार्टी जीतीं
बीएएसपी+ 208
एसपी+ 97
बीजेपी+ 50
कांग्रेस+ 21
अन्य+ 26
कुल 402

दवाओं में मिलावट से जा रही हैं हजारों जानें

दवाओं में जहरीली चीजों की मिलावट से हजारों जानें जा रही हैं। ऐसा भारत ही नहीं, कई और देशों में भी हो रहा है। न्यू यॉर्क टाइम्स ने रविवार को छापी खबर में यह सनसनीखेज खुलासा किया। उसके मुताबिक, नकली पदार्थों के कारोबारी दवाओं और टूथपेस्ट समेत रोजमर्रा के काम आने वाली कई चीजों में जहरीले घोल (सॉल्वेंट) का इस्तेमाल कर रहे हैं।

रिपोर्ट कहती है कि सीरप में मिलाए जा रहे जहरीले पदार्थ डाइएथिलीन ग्लाइकॉल की वजह से भारत ही नहीं, बांग्लादेश, हैती, अर्जेंटीना, नाइजीरिया, पनामा और चीन जैसे देशों के हजारों लोग मौत की नींद सो रहे हैं। इस सॉल्वेंट का इस्तेमाल खांसी से लेकर बुखार की दवाओं और इंजेक्शन में भी किया जाता है।

आम तौर पर दवाओं, टूथपेस्ट और दूसरे प्रॉडक्ट में सॉल्वेंट के तौर पर ग्लिसरीन इस्तेमाल होती है, लेकिन मुनाफाखोर ग्लिसरीन के महंगे होने की वजह से सस्ते और जहरीले सॉल्वेंट का इस्तेमाल करते हैं। दोनों में इतनी समानता है कि असली-नकली का पता ही नहीं चल पाता।

यह पता नहीं चलता कि नकली दवाएं कहां बनाई जा रही हैं, लेकिन रेकॉर्ड्स दर्शाते हैं कि दवा के चार में से जिन तीन मामलों में जहर की मात्रा पाई गई, उन्हें चीन में बनाया गया है। चीन नकली दवाओं का प्रमुख स्त्रोत है। दुनियाभर में हो रही आलोचना के बाद चीन की सरकार ने अपनी फार्मा इंडस्ट्री में सफाई की प्रतिबद्धता जताई है। दिसंबर में ही घूस लेकर दवाओं को अप्रूव कर रहे दो आला रेग्युलेटरों को अरेस्ट किया गया।

बीते दो दशकों में दुनियाभर में रोजमर्रा की जिन आठ प्रमुख चीजों में जहर की मिलावट पाई गई, उनमें सीरप भी एक है। इस जानलेवा मुनाफाखोरी का हालिया शिकार पनामा रहा। रिपोर्ट के मुताबिक, बीते साल वहां के अधिकारियों से अनजाने में खांसी के सीरप की 2.60 लाख शीशियों में डाईएथिलीन ग्लाईकॉल मिल गई। नतीजा यह कि जहर से 365 लोगों की मौत हो गई, जिनमें से १०० की ही पुष्टि की गई। इन मौतों के लिए भी चीन जिम्मेदार है, क्योंकि वहां से ग्लिसरीन बताकर डाईएथिलीन ग्लाईकॉल एक्सपोर्ट किया गया था।

चीन से आयातित आटा अमेरिका में कई जानवरों की मौतों की वजह बना। इसके बाद एफडीए ने उसका आयात रोक दिया। बांग्लादेश में 1992 में कई बच्चों की मौत के बाद जांच की गई, तो बुखार की चर्चित दवाओं के 7 ब्रैंड में जहरीली मिलावट का पता चला। चीन में तैनात डब्ल्यूएचओ के डॉ. हेंक बेकडम इसे ग्लोबल प्रॉब्लम करार देते हैं। उनका मानना है कि इस समस्या से निपटने के लिए दुनियावी समुदाय को मिलकर काम करना होगा।

रिपोर्ट कहती है कि जहरीले सॉल्वेंट वाली चीजों के इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोगों की किडनी फेल हुईं। कई बार नर्वस सिस्टम को नुकसान पहुंचा और उनको लकवा तक हो गया। मरीजों को सांस लेने में भी दिक्कत हो सकती है, जो ज्यादातर मौतों की वजह बनी।

दिल्ली क्या शीला दीक्षित की निजी जायदाद है?

देश के विकास में उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमशक्ति का खासा योगदान है। फिर भी अपने ही देश में ये लोग ' अपनों ' द्वारा उपेक्षा और तिरस्कार झेलने को मजबूर हैं। हाल के सालों में भाषा के नाम पर मुंबई और असम में इनके खिलाफ हुए अत्याचार को शायद बताने की जरूरत नहीं। ऐसे में रोटी की तलाश में राजधानी आए बिहार - यूपी के लोगों के प्रति मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का यह बयान कि इनको वापस भेजने का हमारे पास कानून नहीं है , दुर्भाग्यपूर्ण है।

बेहतरी की कोशिश मनुष्य को कौन कहे , जानवर तक करते हैं। असंतुलित विकास के कारण आज रोजगार के अवसर चंद शहरों तक सिमटते जा रहे हैं। ऐसे में आधुनिक विकास की दौर में पिछड़े बिहार - यूपी के लोगों का ' रोटी ' की तलाश में दिल्ली जैसे शहरों में आना स्वाभाविक है। बिहार - यूपीवासी दिल्ली जैसे शहरों में आकर उसके विकास में मदद करते हैं। हां , इनके आने से कुछ समस्याएं भी पैदा होती हैं जिन्हें दूर करने की जवाबदेही सरकार की है। सीएम शीला ने समस्याओं को दूर न कर इन्हें वापस भेजने के लिए कानून की तलाश शुरू कर दी। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सीएम के इस गैरजिम्मेदार बयान से न सिर्फ बिहार - यूपी के लोग आहत हुए हैं , बल्कि यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए भी खतरनाक है।

अब सवाल उठता है कि दिल्ली की समस्याओं के लिए बिहार - यूपी के लोग जिम्मेदार हैं या सरकार ? राजधानी में भीड़ नहीं बढ़े, इसके लिए जरूरी है कि देश का संतुलित विकास हो। विकास कुछ शहरों तक नहीं सिमटे। इन सारी समस्याओं के जड़ में संतुलित विकास का नहीं होना है। एक तरफ पिछड़े क्षेत्रों की दुश्वारियां रहती हैं , तो दूसरी ओर विकसित शहरों की सुविधाएं। ऐसे में दिल्ली जैसे शहरों में रोजी - रोटी की तलाश में लोग बरबस खींचे चले आते हैं। इसके लिए दोषी यूपी - बिहार जैसे पिछड़े क्षेत्रों के लोग नहीं , सरकारी नीतियां हैं। मुख्यमंत्री शीला को बिहार - यूपी के लोगों को वापस भेजने के लिए कानून न होने पर अफसोस नहीं जाहिर करना चाहिए , बल्कि लोगों की मजबूरियों को समझते हुए देश के संतुलित विकास के लिए पहल करनी चाहिए।

न्यायिक सुधार का रास्ता

हाल ही में हुए केएन काटजू मेमोरियल लेक्चर में कई ऐसी बातें उभर कर आई जो भारत की न्यायपालिका के लिए काफी चौंकाने वाली हैं। सेमिनार में देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, पूर्व कानून मंत्रियों, प्रख्यात वकीलों व वर्तमान जजों सहित कई संसद सदस्यों ने भी भाग लिया। सबसे ज्यादा खरी-खरी बात पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री अरुण जेटली ने न्यायपालिका के बारे में कही। उनका कहना था कि इस देश में नेता की तो जवाबदेही है,उसे सजा भी मिल जाती है और अपनी गलतियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है, लेकिन जजों की कोई जवाबदेही नहीं है। कोई व्यक्ति यदि जज बन जाता है तो वह बीस साल तक कुछ भी करे उसके खिलाफ कुछ भी नहीं होता है। महाभियोग का प्रावधान इतना जटिल है कि आज तक किसी जज को उसकी सजा नहीं मिली। अब जब जजों के खिलाफ अनेक शिकायतें सामने आ रही हैं तब न्यायपालिका और इस देश के लोगों को सोचना पड़ेगा कि जजों की जवाबदेही कैसे तय हो? अरुण जेटली का कहना था कि यदि किसी नेता के खिलाफ कोई मामला आता है तो सबसे पहले मीडिया उसके पीछे पड़ जाती है और स्वयं ही उसका पूरा ट्रायल करके समाज में उस नेता की छवि ध्वस्त कर देता है। इसके बाद सरकारी एजेंसियां और न्यायपालिका उसके पीछे पड़ जाती हैं और उसे सजा देकर छोड़ती हैं। यही नहीं, जनता भी हर पांच साल में उसकी परीक्षा लेती है और सजा देकर घर में बिठा देती है, लेकिन एक जज के लिए ऐसा कुछ भी नहीं होता। मीडिया हमला करने से कतराता है, सरकारी एजेंसियां झिझकती हैं और न्यायपालिका अपने जजों के पीछे क्यों पड़ेगी? ऐसे हालात में अनियमितता करने वाले जज बीस साल तक बैठे रहते हैं और उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता है। यही हाल कमोवेश अफसरों का भी है। अफसर भी बचे रहते हैं। जेटली का कहना था कि सरकारों के काम में न्यायपालिका पूरी तरह हस्तक्षेप करती है और इस हस्तक्षेप की वजह यह बताती है कि जब सरकार या कार्यपालिका अपना काम पूरा नहीं कर पा रही है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा और आदेश देना पड़ेगा। अरुण जेटली के मुताबिक यदि यही तर्क सरकार या कार्यपालिका न्यायपालिका के खिलाफ देने लगे तो जजों को कैसा लगेगा? उदाहरण के लिए दुनिया जानती है कि ढाई करोड़ मुकदमे अदालतों में सालों से लटक रहे हैं और लोग न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जज फैसले नहीं दे पा रहे हैं। इन हालात में यदि सरकार यह कहे कि चूंकि न्यायपालिका अपना काम नहीं कर पा रही है इसलिए सरकार ये सारे मुकदमे खुद निपटाएगी तो क्या न्यायपालिका इसे बर्दाश्त करेगी? इसमें कोई शक नहीं कि जेटली के इन तर्को का वहां बैठे जजों के पास कोई जवाब नहीं था। उल्टे एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बातों का समर्थन किया। जस्टिस जेएस वर्मा ने तो यहां तक कहा कि जजों की नियुक्ति के फैसले में मैंने सरकार के लिए पूरी गुंजाइश छोड़ी है। अगर सरकार को यह लगता है कि किसी व्यक्ति की छवि जज बनने लायक नहीं है तो वह फाइल लौटा सकती है और जजों की समिति उस पर कुछ भी करने के लिए अधिकृत नहीं है। सरकार को अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए। सरकार को यह गलतफहमी निकाल देनी चाहिए कि वरिष्ठ जजों की कमेटी को ही सारे अधिकार हैं। दरअसल लोगों ने उस आदेश का मतलब गलत निकाल लिया है। जब यह बहस चल रही थी तो के एन काटजू के पौत्र एवं सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज मार्कडेय काटजू भी मंच पर बैठे थे और हर बात को सहमति दे रहे थे। दूसरे दिन एक टीवी चैनल में भी इसी तरह की बहस हो रही थी, जिसमें न्यायपालिका की नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा रहे थे। बहस में पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने खुलकर कहा कि जजों को यह अधिकार किसने दिया है कि खुद ही आदेश करके तमाम सुविधाएं अपने नाम कर लें। उन्होंने यह भी कहा कि जजों की नियुक्ति और पदोन्नति में सिर्फ वरिष्ठ जजों की ही कमेटी को सारे अधिकार देने की व्यवस्था गलत है। जब सरकार और न्यायपालिका द्वारा मिलकर जजों की नियुक्ति की जाती थी तब बेहतर और गुणवत्ता वाले जजों की नियुक्ति हुई। जब से यह अधिकार सिर्फ जजों की कमेटी को मिला है तभी से विवादास्पद जजों की नियुक्तियां हो रही हैं और तरह-तरह की शिकायतें आ रही हैं। रविशंकर प्रसाद की बात का प्रख्यात अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी खुलकर समर्थन किया। वस्तुत: सबका यह कहना था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सरकार को भी शामिल करना चाहिए। यह कार्य सिर्फ जजों के ऊपर ही नहीं छोड़ा जाना चाहिए। उक्त बहस से एक बात और निकल कर आई कि जो परिषद जजों के बारे में शिकायतों की सुनवाई करेगी उसमें सरकार के भी प्रतिनिधि होने चाहिए। मुख्य न्यायाधीश और कानून मंत्रालय ने मिलकर यह तय किया है कि संसद के अगले सत्र में राष्ट्रीय न्यायिक परिषद बनाने का विधेयक लाया जाएगा, जिसमें ऐसे जजों पर अंकुश लगाने का काम होगा जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। इस परिषद में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम जज और उच्च न्यायालयों के सबसे वरिष्ठ दो मुख्य न्यायाधीश भी होंगे। यह परिषद मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट और देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों के जजों के बारे में शिकायत सुनेगी और उनकी जांच करेगी। यदि कोई व्यक्ति किसी जज के खिलाफ मजबूत शिकायत करता है तो यह परिषद उसकी तत्काल जांच करेगी और इस दौरान उस जज के अदालत में बैठने पर रोक लग जाएगी। अभी तक जो प्रावधान हैं उसमें न तो आप किसी जज की शिकायत कर सकते हैं और न ही कोई जांच होती है। इसके विपरीत जज के खिलाफ बोलना अदालत की अवमानना माना जाता है। अब यह सारी बात खत्म हो जाएगी और कोई भी किसी भी जज के खिलाफ शिकायत कर सकेगा। यही नहीं, यदि किसी जज के विरुद्ध संगीन मामले हैं और पचास संसद सदस्य हस्ताक्षर करके उसके खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष को लिखकर देते हैं तो लोकसभा अध्यक्ष उस जज को संसद बुलाकर उसका ट्रायल करेंगे। पिछले कुछ सालों से कुछ जजों के खिलाफ तमाम शिकायतें आ रही हैं। जब जस्टिस वीएन खरे मुख्य न्यायाधीश थे तो उन्होंने ऐसे कुछ जजों पर कार्यवाही भी की थी और कुछ का तबादला भी किया था। जस्टिस लाहौटी के जमाने में भी यह बात सामने आई थी और राष्ट्रीय न्यायिक परिषद बनाने की मांग हुई थी। जस्टिस लाहौटी ने उसमें तमाम संशोधनों की बात की थी। एक महत्वपूर्ण संशोधन यह भी था कि शिकायतकर्ता को पूरा संरक्षण दिया जाए और उसका नाम गुप्त रखा जाए। हाल ही में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सब्बरवाल और कुछ मौजूदा जजों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए हैं। यदि इस तरह की न्यायिक परिषद बनती है और उसमें जजों के अलावा समाज के अन्य वर्गो के लोगों को भी शामिल किया जाता है तो मुझे विश्वास है कि उससे न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है।

एक जरूरी सलाह:राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम

राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश को महाशक्ति बनाने के इरादे से युवाओं को दूसरा स्वतंत्रता संग्राम शुरू करने की जो सलाह दी उसके अनुरूप तभी कोई काम हो पाएगा जब राजनीतिक दल उनके इस आह्वान के प्रति खास तौर पर दिलचस्पी दिखाएंगे। दुर्भाग्य से अभी तक के अनुभव को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि राजनीतिक दल राष्ट्रपति की सलाह पर ध्यान देंगे। राष्ट्रपति ने लाल किले की प्राचीर से देश को वर्ष 2020 तक एक विकसित, मजबूत और खुशहाल राष्ट्र बनाने के लिए जिन पांच क्षेत्रों में विशेष ध्यान देने की बात कही उनका उल्लेख वह इसके पहले भी अनेक बार कर चुके हैं। वह देश के नाम अपने संदेश में भी राष्ट्र निर्माण के इस एजेंडे को विस्तार से प्रस्तुत कर चुके हैं, लेकिन इस कार्ययोजना के हिसाब से कोई ठोस काम होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल राष्ट्रपति के भाषण पर केवल ताली बजाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री करना चाहते हैं। अब तो स्थिति यह है कि वह उनके विचारों के अनुरूप बहस करने के लिए भी तैयार नहीं। पिछले दिनों उन्होंने दो दलीय लोकतांत्रिक प्रणाली पर ध्यान देने की जो सलाह दी वह अनेक राजनीतिक दलों को रास नहीं आई। भाकपा ने तो राष्ट्रपति के इस सुझाव को अनावश्यक और लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह भी करार दिया। यद्यपि भाजपा और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर बहस करने से इनकार नहीं किया, लेकिन उनका रवैया भी कोई बहुत उत्साहजनक नहीं। फिलहाल इस बारे में कुछ कहना कठिन है कि राष्ट्रपति के सुझाव के मद्देनजर दो दलीय व्यवस्था पर कोई सार्थक बहस की जा सकेगी। ऐसी स्थिति तब नजर आ रही है जब बहुदलीय व्यवस्था अस्थिरता और सौदेबाजी का पर्याय बन गई है। वर्तमान में गठबंधन राजनीति के जिस दौर को समय की मांग बताया जा रहा है वह राजनीतिक दलों की बढ़ती भीड़ का ही परिणाम है।

बसपा का अप्रत्याशित उभार

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित जीत से प्रदेश के साथ-साथ देश की राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन आना स्वाभाविक है। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी रणनीति शेष सभी दलों पर भारी पड़ी। वैसे तो सारे एक्जिट पोल बसपा को सबसे बड़े दल के रूप में उभार रहे थे, लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत मिलने की उम्मीद किसी को नहीं थी। संभवत: ऐसी राजनीतिक सफलता की उम्मीद बसपा सिपहसालारों को भी नहीं रही होगी। उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद किसी दल को बहुमत मिलना इस राज्य के लिए एक प्रकार से दैवीय सौैगात है। बहुमत प्राप्त बसपा सरकार को अपने स्थायित्व को लेकर कोई संदेह नहीं रहेगा। उसे अन्य दलों से सहयोग की जरूरत नहीं रह गई है। इस स्थिति में सरकार सारा ध्यान प्रदेश के विकास में लगा सकती है। चूंकि मायावती इसके पहले भी तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं अत: उन्हें शासन चलाने का अच्छा-खासा अनुभव है। वह इससे अवगत होंगी कि राज्य की समस्याएं क्या हैं? यदि उन्होंने अपने शासन की प्राथमिकताएं सही तरह से तय कर लीं तो प्रदेश के विकास के प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है। मायावती इसके पहले तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचीं, लेकिन किन्हीं कारणों से वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। इस बार ऐसे कोई कारण नहीं नजर आते कि वह पांच साल सरकार न चला सकें। अपने पिछले कार्यकालों में मायावती दलितों की मसीहा के रूप में उभरीं। उन्होंने अपना जनाधार बढ़ाने के लिए मुसलिम समाज को अपने साथ जोड़ा और जब उससे भी बात नहीं बनी तो पिछड़ी जातियों और विशेष रूप से कुर्मियों का सहारा लिया। एक समय कुर्मी नेता बसपा में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचे, लेकिन धीरे-धीरे वे छिटक गए। बात चाहे सोनेलाल पटेल की हो अथवा बरखू राम वर्मा की, कोई भी बसपा में ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया। समय-समय पर बसपा में महत्वपूर्ण स्थान पाने वाले अन्य नेता भी उससे अलग होते रहे। इसके बावजूद बसपा का जनाधार बढ़ता रहा, लेकिन वह व्यापक रूप नहीं ले सका। मायावती ने जब सतीशचंद्र मिश्र के सहयोग से ब्राह्मणों को बसपा के साथ जोड़ने की कोशिश की तो उनके इस प्रयोग की सफलता को लेकर संदेह था, लेकिन आज इस दल में हर वर्ग के नेता मौजूद हैं। मायावती ने ब्राह्मणों को बड़ी संख्या में टिकट देकर एक तरह से कांग्रेस के पुराने फार्मूले को अपनाया, लेकिन उनकी कामयाबी कहीं अधिक ठोस है। बसपा सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करने वाले दल के रूप में उभरी है। खास बात यह है कि उसे प्रदेश के सभी क्षेत्रों में एक जैसी सफलता मिली है। पिछले 16 वर्षो से राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त रहे प्रदेश में स्थिर सरकार बनने का लाभ सभी को मिलना चाहिए। मायावती ने चुनाव जीतने के बाद अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में जिस तरह यह कहा कि गुंडाराज का अंत हुआ उससे उनका तात्पर्य प्रदेश में अपराध के बढ़ते आंकड़ों की तरफ ही था। अपराध बढ़ने के अनेक कारणों में एक कारण रोजगार की संभावनाएं अत्यधिक कम होना भी होता है। जब काम की तलाश में भटक रहे युवाओं को रोजगार नहीं मिलता तो उनका एक तबका छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त हो जाता है। तीव्र औद्योगिक विकास प्रदेश की प्राथमिकता बननी चाहिए, क्योंकि इससे ही रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होंगे। औद्योगिक विकास में एक बड़ी बाधा बिजली की कमी है। इसके अतिरिक्त सरकारी मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार और नौकरशाही का नकारात्मक रवैया भी उद्योगों के विकास में बाधक है। प्रदेश के औद्योगिक विकास के समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उद्योग केवल दिल्ली के इर्द-गिर्द ही न सिमट जाएं। उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य है। राज्य के सभी क्षेत्रों की जनता की खुशहाली के लिए प्रत्येक इलाके में औद्योगिक क्रांति लाने की आवश्यकता है। चूंकि उत्तर प्रदेश मूलत: कृषि प्रधान राज्य है इसलिए कृषि क्षेत्र में भी ठोस कदम उठाने की जरूरत है। अपने पिछले कार्यकालों में बसपा सरकार प्रदेश के विकास में कोई विशेष योगदान नहीं दे सकी। इसके लिए एक हद तक उस वक्त के राजनीतिक हालात भी उत्तरदायी थे, लेकिन अब बसपा सरकार का लक्ष्य सामाजिक समरसता व औद्योगिक विकास होना चाहिए। बसपा की अप्रत्याशित जीत का देश की राजनीति पर प्रभाव अभी से नजर आने लगा है। शीघ्र होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में बसपा की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। वैसे तो कांग्रेस ने बसपा के साथ मिलकर काम करने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन अपने बलबूते सरकार बनाने में सक्षम हो जाने के बाद यह समय ही बताएगा कि इन दोनों दलों के कैसे रिश्ते बनते हैं? यदि बसपा ने कांग्रेस समर्थित राष्ट्रपति के उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया तो उसके लिए अपने प्रत्याशी को जिताना कठिन हो जाएगा, क्योंकि यह साफ है कि सपा कांग्रेस के उम्मीदवार का विरोध करेगी। बसपा ने समाज के हर तबके को अपने साथ जोड़कर जो राजनीतिक सफलता हासिल की उससे प्रभावित होकर अन्य प्रदेशों में भी राजनीतिक दल इसी रणनीति को अपनाने का प्रयास करेंगे, लेकिन वर्तमान में मतदाता केवल जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर ही मतदान नहीं करता। वह यह भी देखता है कि ऐसे समीकरण बनाने वाले दल अपने प्रयासों के प्रति कितना गंभीर हैं और वे सत्ता में आने तथा सही तरह से शासन चलाने की क्षमता रखते हैं या नहीं? उत्तर प्रदेश में सपा ने विकास के चाहे जितने दावे क्यों न किए हों, राज्य की जनता पिछड़ेपन से त्रस्त बनी रही। यही कारण रहा कि जनता ने सपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। सपा से नाराज लोगों का वोट भाजपा या कांग्रेस के खाते में न जाकर बसपा की झोली में इसलिए गिरा, क्योंकि ये दोनों राष्ट्रीय दल खुद को सशक्त विकल्प के रूप में नहीं पेश कर सके। जहां कांग्रेस ने राहुल गांधी को अत्यधिक देर से मैदान में उतारा वहीं भाजपा अंदरूनी कलह से मुक्त नहीं हो सकी। राहुल गांधी को मीडिया ने तो हाथों हाथ लिया, लेकिन उनके रोड शो में आई भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो सकी। भाजपा ने अपने तमाम दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा, लेकिन वे मतदाताओं का विश्वास नहीं जीत सके। उत्तर प्रदेश सरीखे बड़े राज्य में इन दोनों राष्ट्रीय दलों की जो स्थिति बनी उस पर उन्हें ईमानदारी से आत्ममंथन करना चाहिए। आज के दौर में केवल मीडिया में छाये रहने वाले दल मतदाताओं के बीच अपनी जगह नहीं बना सकते। कांशीराम के देहांत के बाद जो राजनीतिक पंडित बसपा को पहले जैसा सक्षम नहीं मान रहे थे उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी। वैसे यह समय बताएगा कि बसपा ने जिस सोशल इंजीनियरिंग के जरिए उत्तर प्रदेश में विजय पाई उसका ही सहारा लेकर वह देश की राजनीति में अहम भूमिका निभा पाएगी या नहीं? ऐसी किसी भूमिका का निर्वाह करने के लिए उसे उत्तर प्रदेश में कुछ करके दिखाना होगा। यदि बसपा उत्तर प्रदेश में अपने शासन के जरिए कोई चमत्कार कर दिखाती है तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य प्रदेशों में भी अपनी पैठ बनाकर वह राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लेगी।