चट्टान से मिटटी
पत्थर से टकरा कर सर हर लहर लौट जाती है,
क्यों कि निकलतीं हैं सागर के छिछले जल से,
किन्तु चक्रवात आकर बहा ले जाता उसी चट्टान को,
क्योंकि निकलता है महासागर के गंभीर ह्रदय से,
तुम चट्टान ह़ो वही, निर्मम, कठोर, सर फोडती ह़ो लहरों का,
मैं जानता हूँ उसी पत्थर से बनेगी रेत, सौम्य चांदी सी,
ये भी जानता हूँ खड़ी ह़ो किनारे पर तूफ़ान के इंतजार में,
मैं बनूँगा चक्रवात और तुम्हें बनाऊंगा, चट्टान से मिटटी...
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
१०-१०-१९९५
Friday, December 25, 2009
हिंसक समर
हिंसक समर
आंसू मैं बहाते हुए निकला, कब्रिस्तान के अँधेरे से,
जहन दफ़न किया जा रहा है मिलकर,
मनुष्यता को निर्मम बनकर,
जानते हुए भी कि कुछ न बचेगा,
आने वाली पीढ़ियों के लिए,
जन्म लेने में भी जिनके भाग्य को छोड़ कर,
लगाया जा रहा है सुरुचि का हिसाब,
हिंसक ह़ो चुके हैं हम, जाने कब क्यों कैसे
प्रेम के पल्लू को झाड़ते नहीं कटते हैं,
देख रहा हूँ मैं उस हिंसक समर को,
जो छिड़ा है मनुष्य और आदमी के बीच,
लग रहा है जीत जाएगा आदमी इसमे
करके मनुष्य का संहार,
अरे लो!!!.....गिर गया धड सर से अलग होकर,
तड़प रहा है वो अब तक,
मरने से उसके आदमी जो खड़ा था तान कर सीना,
घुटनों पर बैठने को विवश ह़ो गया है....
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
११-१२-१९९४
आंसू मैं बहाते हुए निकला, कब्रिस्तान के अँधेरे से,
जहन दफ़न किया जा रहा है मिलकर,
मनुष्यता को निर्मम बनकर,
जानते हुए भी कि कुछ न बचेगा,
आने वाली पीढ़ियों के लिए,
जन्म लेने में भी जिनके भाग्य को छोड़ कर,
लगाया जा रहा है सुरुचि का हिसाब,
हिंसक ह़ो चुके हैं हम, जाने कब क्यों कैसे
प्रेम के पल्लू को झाड़ते नहीं कटते हैं,
देख रहा हूँ मैं उस हिंसक समर को,
जो छिड़ा है मनुष्य और आदमी के बीच,
लग रहा है जीत जाएगा आदमी इसमे
करके मनुष्य का संहार,
अरे लो!!!.....गिर गया धड सर से अलग होकर,
तड़प रहा है वो अब तक,
मरने से उसके आदमी जो खड़ा था तान कर सीना,
घुटनों पर बैठने को विवश ह़ो गया है....
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
११-१२-१९९४
Wednesday, December 23, 2009
सफ़ेद आवाज
सफ़ेद आवाज
रात के खामोशियों में, इक अकेली सी चीखने की आवाज़,
मेरे जहन के तीसरे कोने तक, समंदर के लहरों सी पसर गयी,
टकराई धूल और धूएं से भरे, कानो के फटे हुए पर्दों से,
ललाई हुयी आँखों में धुंए सी घुसी और आंसू ले आई.
उन आंसू के नकली शहरी मोतियों में, धूल और धुंए के चिंतित कण,
काले मोतियों सी रात के अँधेरे में, चमकी आँखों के किनारों पर और ढुलक गयी,
जानते हों क्यों???
क्यों की एक और मिल मजदूर की पत्नी को,
समाज की काली घूरती आँखें,
श्वेत वस्त्र धारण करने को.........विवश कर गयीं.
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
०१-०२-१९९४
रात के खामोशियों में, इक अकेली सी चीखने की आवाज़,
मेरे जहन के तीसरे कोने तक, समंदर के लहरों सी पसर गयी,
टकराई धूल और धूएं से भरे, कानो के फटे हुए पर्दों से,
ललाई हुयी आँखों में धुंए सी घुसी और आंसू ले आई.
उन आंसू के नकली शहरी मोतियों में, धूल और धुंए के चिंतित कण,
काले मोतियों सी रात के अँधेरे में, चमकी आँखों के किनारों पर और ढुलक गयी,
जानते हों क्यों???
क्यों की एक और मिल मजदूर की पत्नी को,
समाज की काली घूरती आँखें,
श्वेत वस्त्र धारण करने को.........विवश कर गयीं.
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
०१-०२-१९९४
बारिश
एक नाले के तलहटी से, उभरता और डूबता,
खेलता गंदी बस्तियों के कीचड़ भरे, बदबूदार पानी से,
एक टुकड़ा इंसानी जज्बात का, पानी से भीगा हुआ,
गुजरा मेरे काफी करीब से, और बोला लजाकर,
ये न समझना मैं यूं ही जा रहा हूँ,
ये तो बम्बई की बारिश है................
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
२२-०१-१९९४
खेलता गंदी बस्तियों के कीचड़ भरे, बदबूदार पानी से,
एक टुकड़ा इंसानी जज्बात का, पानी से भीगा हुआ,
गुजरा मेरे काफी करीब से, और बोला लजाकर,
ये न समझना मैं यूं ही जा रहा हूँ,
ये तो बम्बई की बारिश है................
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
२२-०१-१९९४
Subscribe to:
Posts (Atom)