Monday, May 14, 2007

अमेरिका से लौट रहे हैं आइटी पेशेवर

न्यूयार्क। भारत में तेजी से हो रहे अर्थव्यवस्था के विकास और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में आए उछाल से आकर्षित होकर अधिकाधिक संख्या में भारतीय सिलिकन वैली से स्वदेश लौट रहे हैं।
द इंडस एंटरप्रीनियर ग्रुप (टीआईई) का अनुमान है कि हाल के वर्षो में लगभग 60000 भारतीय स्वदेश लौट चुके हैं।
इस प्रवृत्तिका प्रभाव अमेरिका में सर्वाधिक सिलिकन वैली पर ही पड़ा है। टीआईई ने 2003 में कहा था कि 15000 से 20000 भारतीय वापस जा चुके हैं। संगठन के चार्टर सदस्य विश मिश्रा ने सान जोस मर्करी न्यूज को बताया कि यह प्रवृत्तिजारी है और पिछले चार साल में करीब 40000 और भारतीय स्वदेश लौट चुके हैं।
मिश्रा ने कहा कि भारत में पूंजी का प्रवाह भी बढ़ा है। इसका अधिकतर भाग सिलिकन वैली से आ रहा है। मिश्रा क्लीयरस्टोन वेंचर्स का साझीदार भी है।
क्लीयरस्टोन वेंचर्स का अब मुंबई में दफ्तर भी है। ऐसे ही कई और कंपनियों ने भी अपने दफ्तर वहां खोले हैं।
मिश्रा ने कहा कि अगस्त 2006 में समाप्त हुई 12 महीने की अवधि के दौरान विभिन्न कंपनियों ने अलग-अलग कंपनियों में दो अरब डालर का निवेश किया।

किसको कितनी सीटें (नतीजे) 2007

यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम : (सीट-402/402)
पार्टी जीतीं
बीएएसपी+ 208
एसपी+ 97
बीजेपी+ 50
कांग्रेस+ 21
अन्य+ 26
कुल 402

दवाओं में मिलावट से जा रही हैं हजारों जानें

दवाओं में जहरीली चीजों की मिलावट से हजारों जानें जा रही हैं। ऐसा भारत ही नहीं, कई और देशों में भी हो रहा है। न्यू यॉर्क टाइम्स ने रविवार को छापी खबर में यह सनसनीखेज खुलासा किया। उसके मुताबिक, नकली पदार्थों के कारोबारी दवाओं और टूथपेस्ट समेत रोजमर्रा के काम आने वाली कई चीजों में जहरीले घोल (सॉल्वेंट) का इस्तेमाल कर रहे हैं।

रिपोर्ट कहती है कि सीरप में मिलाए जा रहे जहरीले पदार्थ डाइएथिलीन ग्लाइकॉल की वजह से भारत ही नहीं, बांग्लादेश, हैती, अर्जेंटीना, नाइजीरिया, पनामा और चीन जैसे देशों के हजारों लोग मौत की नींद सो रहे हैं। इस सॉल्वेंट का इस्तेमाल खांसी से लेकर बुखार की दवाओं और इंजेक्शन में भी किया जाता है।

आम तौर पर दवाओं, टूथपेस्ट और दूसरे प्रॉडक्ट में सॉल्वेंट के तौर पर ग्लिसरीन इस्तेमाल होती है, लेकिन मुनाफाखोर ग्लिसरीन के महंगे होने की वजह से सस्ते और जहरीले सॉल्वेंट का इस्तेमाल करते हैं। दोनों में इतनी समानता है कि असली-नकली का पता ही नहीं चल पाता।

यह पता नहीं चलता कि नकली दवाएं कहां बनाई जा रही हैं, लेकिन रेकॉर्ड्स दर्शाते हैं कि दवा के चार में से जिन तीन मामलों में जहर की मात्रा पाई गई, उन्हें चीन में बनाया गया है। चीन नकली दवाओं का प्रमुख स्त्रोत है। दुनियाभर में हो रही आलोचना के बाद चीन की सरकार ने अपनी फार्मा इंडस्ट्री में सफाई की प्रतिबद्धता जताई है। दिसंबर में ही घूस लेकर दवाओं को अप्रूव कर रहे दो आला रेग्युलेटरों को अरेस्ट किया गया।

बीते दो दशकों में दुनियाभर में रोजमर्रा की जिन आठ प्रमुख चीजों में जहर की मिलावट पाई गई, उनमें सीरप भी एक है। इस जानलेवा मुनाफाखोरी का हालिया शिकार पनामा रहा। रिपोर्ट के मुताबिक, बीते साल वहां के अधिकारियों से अनजाने में खांसी के सीरप की 2.60 लाख शीशियों में डाईएथिलीन ग्लाईकॉल मिल गई। नतीजा यह कि जहर से 365 लोगों की मौत हो गई, जिनमें से १०० की ही पुष्टि की गई। इन मौतों के लिए भी चीन जिम्मेदार है, क्योंकि वहां से ग्लिसरीन बताकर डाईएथिलीन ग्लाईकॉल एक्सपोर्ट किया गया था।

चीन से आयातित आटा अमेरिका में कई जानवरों की मौतों की वजह बना। इसके बाद एफडीए ने उसका आयात रोक दिया। बांग्लादेश में 1992 में कई बच्चों की मौत के बाद जांच की गई, तो बुखार की चर्चित दवाओं के 7 ब्रैंड में जहरीली मिलावट का पता चला। चीन में तैनात डब्ल्यूएचओ के डॉ. हेंक बेकडम इसे ग्लोबल प्रॉब्लम करार देते हैं। उनका मानना है कि इस समस्या से निपटने के लिए दुनियावी समुदाय को मिलकर काम करना होगा।

रिपोर्ट कहती है कि जहरीले सॉल्वेंट वाली चीजों के इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोगों की किडनी फेल हुईं। कई बार नर्वस सिस्टम को नुकसान पहुंचा और उनको लकवा तक हो गया। मरीजों को सांस लेने में भी दिक्कत हो सकती है, जो ज्यादातर मौतों की वजह बनी।

दिल्ली क्या शीला दीक्षित की निजी जायदाद है?

देश के विकास में उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमशक्ति का खासा योगदान है। फिर भी अपने ही देश में ये लोग ' अपनों ' द्वारा उपेक्षा और तिरस्कार झेलने को मजबूर हैं। हाल के सालों में भाषा के नाम पर मुंबई और असम में इनके खिलाफ हुए अत्याचार को शायद बताने की जरूरत नहीं। ऐसे में रोटी की तलाश में राजधानी आए बिहार - यूपी के लोगों के प्रति मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का यह बयान कि इनको वापस भेजने का हमारे पास कानून नहीं है , दुर्भाग्यपूर्ण है।

बेहतरी की कोशिश मनुष्य को कौन कहे , जानवर तक करते हैं। असंतुलित विकास के कारण आज रोजगार के अवसर चंद शहरों तक सिमटते जा रहे हैं। ऐसे में आधुनिक विकास की दौर में पिछड़े बिहार - यूपी के लोगों का ' रोटी ' की तलाश में दिल्ली जैसे शहरों में आना स्वाभाविक है। बिहार - यूपीवासी दिल्ली जैसे शहरों में आकर उसके विकास में मदद करते हैं। हां , इनके आने से कुछ समस्याएं भी पैदा होती हैं जिन्हें दूर करने की जवाबदेही सरकार की है। सीएम शीला ने समस्याओं को दूर न कर इन्हें वापस भेजने के लिए कानून की तलाश शुरू कर दी। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सीएम के इस गैरजिम्मेदार बयान से न सिर्फ बिहार - यूपी के लोग आहत हुए हैं , बल्कि यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए भी खतरनाक है।

अब सवाल उठता है कि दिल्ली की समस्याओं के लिए बिहार - यूपी के लोग जिम्मेदार हैं या सरकार ? राजधानी में भीड़ नहीं बढ़े, इसके लिए जरूरी है कि देश का संतुलित विकास हो। विकास कुछ शहरों तक नहीं सिमटे। इन सारी समस्याओं के जड़ में संतुलित विकास का नहीं होना है। एक तरफ पिछड़े क्षेत्रों की दुश्वारियां रहती हैं , तो दूसरी ओर विकसित शहरों की सुविधाएं। ऐसे में दिल्ली जैसे शहरों में रोजी - रोटी की तलाश में लोग बरबस खींचे चले आते हैं। इसके लिए दोषी यूपी - बिहार जैसे पिछड़े क्षेत्रों के लोग नहीं , सरकारी नीतियां हैं। मुख्यमंत्री शीला को बिहार - यूपी के लोगों को वापस भेजने के लिए कानून न होने पर अफसोस नहीं जाहिर करना चाहिए , बल्कि लोगों की मजबूरियों को समझते हुए देश के संतुलित विकास के लिए पहल करनी चाहिए।

न्यायिक सुधार का रास्ता

हाल ही में हुए केएन काटजू मेमोरियल लेक्चर में कई ऐसी बातें उभर कर आई जो भारत की न्यायपालिका के लिए काफी चौंकाने वाली हैं। सेमिनार में देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, पूर्व कानून मंत्रियों, प्रख्यात वकीलों व वर्तमान जजों सहित कई संसद सदस्यों ने भी भाग लिया। सबसे ज्यादा खरी-खरी बात पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री अरुण जेटली ने न्यायपालिका के बारे में कही। उनका कहना था कि इस देश में नेता की तो जवाबदेही है,उसे सजा भी मिल जाती है और अपनी गलतियों का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है, लेकिन जजों की कोई जवाबदेही नहीं है। कोई व्यक्ति यदि जज बन जाता है तो वह बीस साल तक कुछ भी करे उसके खिलाफ कुछ भी नहीं होता है। महाभियोग का प्रावधान इतना जटिल है कि आज तक किसी जज को उसकी सजा नहीं मिली। अब जब जजों के खिलाफ अनेक शिकायतें सामने आ रही हैं तब न्यायपालिका और इस देश के लोगों को सोचना पड़ेगा कि जजों की जवाबदेही कैसे तय हो? अरुण जेटली का कहना था कि यदि किसी नेता के खिलाफ कोई मामला आता है तो सबसे पहले मीडिया उसके पीछे पड़ जाती है और स्वयं ही उसका पूरा ट्रायल करके समाज में उस नेता की छवि ध्वस्त कर देता है। इसके बाद सरकारी एजेंसियां और न्यायपालिका उसके पीछे पड़ जाती हैं और उसे सजा देकर छोड़ती हैं। यही नहीं, जनता भी हर पांच साल में उसकी परीक्षा लेती है और सजा देकर घर में बिठा देती है, लेकिन एक जज के लिए ऐसा कुछ भी नहीं होता। मीडिया हमला करने से कतराता है, सरकारी एजेंसियां झिझकती हैं और न्यायपालिका अपने जजों के पीछे क्यों पड़ेगी? ऐसे हालात में अनियमितता करने वाले जज बीस साल तक बैठे रहते हैं और उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता है। यही हाल कमोवेश अफसरों का भी है। अफसर भी बचे रहते हैं। जेटली का कहना था कि सरकारों के काम में न्यायपालिका पूरी तरह हस्तक्षेप करती है और इस हस्तक्षेप की वजह यह बताती है कि जब सरकार या कार्यपालिका अपना काम पूरा नहीं कर पा रही है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा और आदेश देना पड़ेगा। अरुण जेटली के मुताबिक यदि यही तर्क सरकार या कार्यपालिका न्यायपालिका के खिलाफ देने लगे तो जजों को कैसा लगेगा? उदाहरण के लिए दुनिया जानती है कि ढाई करोड़ मुकदमे अदालतों में सालों से लटक रहे हैं और लोग न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जज फैसले नहीं दे पा रहे हैं। इन हालात में यदि सरकार यह कहे कि चूंकि न्यायपालिका अपना काम नहीं कर पा रही है इसलिए सरकार ये सारे मुकदमे खुद निपटाएगी तो क्या न्यायपालिका इसे बर्दाश्त करेगी? इसमें कोई शक नहीं कि जेटली के इन तर्को का वहां बैठे जजों के पास कोई जवाब नहीं था। उल्टे एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बातों का समर्थन किया। जस्टिस जेएस वर्मा ने तो यहां तक कहा कि जजों की नियुक्ति के फैसले में मैंने सरकार के लिए पूरी गुंजाइश छोड़ी है। अगर सरकार को यह लगता है कि किसी व्यक्ति की छवि जज बनने लायक नहीं है तो वह फाइल लौटा सकती है और जजों की समिति उस पर कुछ भी करने के लिए अधिकृत नहीं है। सरकार को अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए। सरकार को यह गलतफहमी निकाल देनी चाहिए कि वरिष्ठ जजों की कमेटी को ही सारे अधिकार हैं। दरअसल लोगों ने उस आदेश का मतलब गलत निकाल लिया है। जब यह बहस चल रही थी तो के एन काटजू के पौत्र एवं सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज मार्कडेय काटजू भी मंच पर बैठे थे और हर बात को सहमति दे रहे थे। दूसरे दिन एक टीवी चैनल में भी इसी तरह की बहस हो रही थी, जिसमें न्यायपालिका की नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा रहे थे। बहस में पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने खुलकर कहा कि जजों को यह अधिकार किसने दिया है कि खुद ही आदेश करके तमाम सुविधाएं अपने नाम कर लें। उन्होंने यह भी कहा कि जजों की नियुक्ति और पदोन्नति में सिर्फ वरिष्ठ जजों की ही कमेटी को सारे अधिकार देने की व्यवस्था गलत है। जब सरकार और न्यायपालिका द्वारा मिलकर जजों की नियुक्ति की जाती थी तब बेहतर और गुणवत्ता वाले जजों की नियुक्ति हुई। जब से यह अधिकार सिर्फ जजों की कमेटी को मिला है तभी से विवादास्पद जजों की नियुक्तियां हो रही हैं और तरह-तरह की शिकायतें आ रही हैं। रविशंकर प्रसाद की बात का प्रख्यात अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी खुलकर समर्थन किया। वस्तुत: सबका यह कहना था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सरकार को भी शामिल करना चाहिए। यह कार्य सिर्फ जजों के ऊपर ही नहीं छोड़ा जाना चाहिए। उक्त बहस से एक बात और निकल कर आई कि जो परिषद जजों के बारे में शिकायतों की सुनवाई करेगी उसमें सरकार के भी प्रतिनिधि होने चाहिए। मुख्य न्यायाधीश और कानून मंत्रालय ने मिलकर यह तय किया है कि संसद के अगले सत्र में राष्ट्रीय न्यायिक परिषद बनाने का विधेयक लाया जाएगा, जिसमें ऐसे जजों पर अंकुश लगाने का काम होगा जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। इस परिषद में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम जज और उच्च न्यायालयों के सबसे वरिष्ठ दो मुख्य न्यायाधीश भी होंगे। यह परिषद मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट और देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों के जजों के बारे में शिकायत सुनेगी और उनकी जांच करेगी। यदि कोई व्यक्ति किसी जज के खिलाफ मजबूत शिकायत करता है तो यह परिषद उसकी तत्काल जांच करेगी और इस दौरान उस जज के अदालत में बैठने पर रोक लग जाएगी। अभी तक जो प्रावधान हैं उसमें न तो आप किसी जज की शिकायत कर सकते हैं और न ही कोई जांच होती है। इसके विपरीत जज के खिलाफ बोलना अदालत की अवमानना माना जाता है। अब यह सारी बात खत्म हो जाएगी और कोई भी किसी भी जज के खिलाफ शिकायत कर सकेगा। यही नहीं, यदि किसी जज के विरुद्ध संगीन मामले हैं और पचास संसद सदस्य हस्ताक्षर करके उसके खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष को लिखकर देते हैं तो लोकसभा अध्यक्ष उस जज को संसद बुलाकर उसका ट्रायल करेंगे। पिछले कुछ सालों से कुछ जजों के खिलाफ तमाम शिकायतें आ रही हैं। जब जस्टिस वीएन खरे मुख्य न्यायाधीश थे तो उन्होंने ऐसे कुछ जजों पर कार्यवाही भी की थी और कुछ का तबादला भी किया था। जस्टिस लाहौटी के जमाने में भी यह बात सामने आई थी और राष्ट्रीय न्यायिक परिषद बनाने की मांग हुई थी। जस्टिस लाहौटी ने उसमें तमाम संशोधनों की बात की थी। एक महत्वपूर्ण संशोधन यह भी था कि शिकायतकर्ता को पूरा संरक्षण दिया जाए और उसका नाम गुप्त रखा जाए। हाल ही में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सब्बरवाल और कुछ मौजूदा जजों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए हैं। यदि इस तरह की न्यायिक परिषद बनती है और उसमें जजों के अलावा समाज के अन्य वर्गो के लोगों को भी शामिल किया जाता है तो मुझे विश्वास है कि उससे न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है।

एक जरूरी सलाह:राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम

राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश को महाशक्ति बनाने के इरादे से युवाओं को दूसरा स्वतंत्रता संग्राम शुरू करने की जो सलाह दी उसके अनुरूप तभी कोई काम हो पाएगा जब राजनीतिक दल उनके इस आह्वान के प्रति खास तौर पर दिलचस्पी दिखाएंगे। दुर्भाग्य से अभी तक के अनुभव को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि राजनीतिक दल राष्ट्रपति की सलाह पर ध्यान देंगे। राष्ट्रपति ने लाल किले की प्राचीर से देश को वर्ष 2020 तक एक विकसित, मजबूत और खुशहाल राष्ट्र बनाने के लिए जिन पांच क्षेत्रों में विशेष ध्यान देने की बात कही उनका उल्लेख वह इसके पहले भी अनेक बार कर चुके हैं। वह देश के नाम अपने संदेश में भी राष्ट्र निर्माण के इस एजेंडे को विस्तार से प्रस्तुत कर चुके हैं, लेकिन इस कार्ययोजना के हिसाब से कोई ठोस काम होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल राष्ट्रपति के भाषण पर केवल ताली बजाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री करना चाहते हैं। अब तो स्थिति यह है कि वह उनके विचारों के अनुरूप बहस करने के लिए भी तैयार नहीं। पिछले दिनों उन्होंने दो दलीय लोकतांत्रिक प्रणाली पर ध्यान देने की जो सलाह दी वह अनेक राजनीतिक दलों को रास नहीं आई। भाकपा ने तो राष्ट्रपति के इस सुझाव को अनावश्यक और लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह भी करार दिया। यद्यपि भाजपा और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर बहस करने से इनकार नहीं किया, लेकिन उनका रवैया भी कोई बहुत उत्साहजनक नहीं। फिलहाल इस बारे में कुछ कहना कठिन है कि राष्ट्रपति के सुझाव के मद्देनजर दो दलीय व्यवस्था पर कोई सार्थक बहस की जा सकेगी। ऐसी स्थिति तब नजर आ रही है जब बहुदलीय व्यवस्था अस्थिरता और सौदेबाजी का पर्याय बन गई है। वर्तमान में गठबंधन राजनीति के जिस दौर को समय की मांग बताया जा रहा है वह राजनीतिक दलों की बढ़ती भीड़ का ही परिणाम है।

बसपा का अप्रत्याशित उभार

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित जीत से प्रदेश के साथ-साथ देश की राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन आना स्वाभाविक है। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी रणनीति शेष सभी दलों पर भारी पड़ी। वैसे तो सारे एक्जिट पोल बसपा को सबसे बड़े दल के रूप में उभार रहे थे, लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत मिलने की उम्मीद किसी को नहीं थी। संभवत: ऐसी राजनीतिक सफलता की उम्मीद बसपा सिपहसालारों को भी नहीं रही होगी। उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद किसी दल को बहुमत मिलना इस राज्य के लिए एक प्रकार से दैवीय सौैगात है। बहुमत प्राप्त बसपा सरकार को अपने स्थायित्व को लेकर कोई संदेह नहीं रहेगा। उसे अन्य दलों से सहयोग की जरूरत नहीं रह गई है। इस स्थिति में सरकार सारा ध्यान प्रदेश के विकास में लगा सकती है। चूंकि मायावती इसके पहले भी तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं अत: उन्हें शासन चलाने का अच्छा-खासा अनुभव है। वह इससे अवगत होंगी कि राज्य की समस्याएं क्या हैं? यदि उन्होंने अपने शासन की प्राथमिकताएं सही तरह से तय कर लीं तो प्रदेश के विकास के प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है। मायावती इसके पहले तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचीं, लेकिन किन्हीं कारणों से वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। इस बार ऐसे कोई कारण नहीं नजर आते कि वह पांच साल सरकार न चला सकें। अपने पिछले कार्यकालों में मायावती दलितों की मसीहा के रूप में उभरीं। उन्होंने अपना जनाधार बढ़ाने के लिए मुसलिम समाज को अपने साथ जोड़ा और जब उससे भी बात नहीं बनी तो पिछड़ी जातियों और विशेष रूप से कुर्मियों का सहारा लिया। एक समय कुर्मी नेता बसपा में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचे, लेकिन धीरे-धीरे वे छिटक गए। बात चाहे सोनेलाल पटेल की हो अथवा बरखू राम वर्मा की, कोई भी बसपा में ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया। समय-समय पर बसपा में महत्वपूर्ण स्थान पाने वाले अन्य नेता भी उससे अलग होते रहे। इसके बावजूद बसपा का जनाधार बढ़ता रहा, लेकिन वह व्यापक रूप नहीं ले सका। मायावती ने जब सतीशचंद्र मिश्र के सहयोग से ब्राह्मणों को बसपा के साथ जोड़ने की कोशिश की तो उनके इस प्रयोग की सफलता को लेकर संदेह था, लेकिन आज इस दल में हर वर्ग के नेता मौजूद हैं। मायावती ने ब्राह्मणों को बड़ी संख्या में टिकट देकर एक तरह से कांग्रेस के पुराने फार्मूले को अपनाया, लेकिन उनकी कामयाबी कहीं अधिक ठोस है। बसपा सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करने वाले दल के रूप में उभरी है। खास बात यह है कि उसे प्रदेश के सभी क्षेत्रों में एक जैसी सफलता मिली है। पिछले 16 वर्षो से राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त रहे प्रदेश में स्थिर सरकार बनने का लाभ सभी को मिलना चाहिए। मायावती ने चुनाव जीतने के बाद अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में जिस तरह यह कहा कि गुंडाराज का अंत हुआ उससे उनका तात्पर्य प्रदेश में अपराध के बढ़ते आंकड़ों की तरफ ही था। अपराध बढ़ने के अनेक कारणों में एक कारण रोजगार की संभावनाएं अत्यधिक कम होना भी होता है। जब काम की तलाश में भटक रहे युवाओं को रोजगार नहीं मिलता तो उनका एक तबका छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त हो जाता है। तीव्र औद्योगिक विकास प्रदेश की प्राथमिकता बननी चाहिए, क्योंकि इससे ही रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होंगे। औद्योगिक विकास में एक बड़ी बाधा बिजली की कमी है। इसके अतिरिक्त सरकारी मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार और नौकरशाही का नकारात्मक रवैया भी उद्योगों के विकास में बाधक है। प्रदेश के औद्योगिक विकास के समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उद्योग केवल दिल्ली के इर्द-गिर्द ही न सिमट जाएं। उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य है। राज्य के सभी क्षेत्रों की जनता की खुशहाली के लिए प्रत्येक इलाके में औद्योगिक क्रांति लाने की आवश्यकता है। चूंकि उत्तर प्रदेश मूलत: कृषि प्रधान राज्य है इसलिए कृषि क्षेत्र में भी ठोस कदम उठाने की जरूरत है। अपने पिछले कार्यकालों में बसपा सरकार प्रदेश के विकास में कोई विशेष योगदान नहीं दे सकी। इसके लिए एक हद तक उस वक्त के राजनीतिक हालात भी उत्तरदायी थे, लेकिन अब बसपा सरकार का लक्ष्य सामाजिक समरसता व औद्योगिक विकास होना चाहिए। बसपा की अप्रत्याशित जीत का देश की राजनीति पर प्रभाव अभी से नजर आने लगा है। शीघ्र होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में बसपा की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। वैसे तो कांग्रेस ने बसपा के साथ मिलकर काम करने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन अपने बलबूते सरकार बनाने में सक्षम हो जाने के बाद यह समय ही बताएगा कि इन दोनों दलों के कैसे रिश्ते बनते हैं? यदि बसपा ने कांग्रेस समर्थित राष्ट्रपति के उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया तो उसके लिए अपने प्रत्याशी को जिताना कठिन हो जाएगा, क्योंकि यह साफ है कि सपा कांग्रेस के उम्मीदवार का विरोध करेगी। बसपा ने समाज के हर तबके को अपने साथ जोड़कर जो राजनीतिक सफलता हासिल की उससे प्रभावित होकर अन्य प्रदेशों में भी राजनीतिक दल इसी रणनीति को अपनाने का प्रयास करेंगे, लेकिन वर्तमान में मतदाता केवल जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर ही मतदान नहीं करता। वह यह भी देखता है कि ऐसे समीकरण बनाने वाले दल अपने प्रयासों के प्रति कितना गंभीर हैं और वे सत्ता में आने तथा सही तरह से शासन चलाने की क्षमता रखते हैं या नहीं? उत्तर प्रदेश में सपा ने विकास के चाहे जितने दावे क्यों न किए हों, राज्य की जनता पिछड़ेपन से त्रस्त बनी रही। यही कारण रहा कि जनता ने सपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। सपा से नाराज लोगों का वोट भाजपा या कांग्रेस के खाते में न जाकर बसपा की झोली में इसलिए गिरा, क्योंकि ये दोनों राष्ट्रीय दल खुद को सशक्त विकल्प के रूप में नहीं पेश कर सके। जहां कांग्रेस ने राहुल गांधी को अत्यधिक देर से मैदान में उतारा वहीं भाजपा अंदरूनी कलह से मुक्त नहीं हो सकी। राहुल गांधी को मीडिया ने तो हाथों हाथ लिया, लेकिन उनके रोड शो में आई भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो सकी। भाजपा ने अपने तमाम दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा, लेकिन वे मतदाताओं का विश्वास नहीं जीत सके। उत्तर प्रदेश सरीखे बड़े राज्य में इन दोनों राष्ट्रीय दलों की जो स्थिति बनी उस पर उन्हें ईमानदारी से आत्ममंथन करना चाहिए। आज के दौर में केवल मीडिया में छाये रहने वाले दल मतदाताओं के बीच अपनी जगह नहीं बना सकते। कांशीराम के देहांत के बाद जो राजनीतिक पंडित बसपा को पहले जैसा सक्षम नहीं मान रहे थे उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी। वैसे यह समय बताएगा कि बसपा ने जिस सोशल इंजीनियरिंग के जरिए उत्तर प्रदेश में विजय पाई उसका ही सहारा लेकर वह देश की राजनीति में अहम भूमिका निभा पाएगी या नहीं? ऐसी किसी भूमिका का निर्वाह करने के लिए उसे उत्तर प्रदेश में कुछ करके दिखाना होगा। यदि बसपा उत्तर प्रदेश में अपने शासन के जरिए कोई चमत्कार कर दिखाती है तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य प्रदेशों में भी अपनी पैठ बनाकर वह राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लेगी।

Monday, May 7, 2007

विधवाओं का गाँव:रत्नाल, गुजरात

यहाँ हर घर के आगे एक ट्रक खड़ा मिलता है और लगभग हर घर में एक विधवा महिला रहती है. यह अनोखा गाँव है और यह गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है. इस गाँव का नाम रत्नाल है. 2000 घरों से आबाद इस गाँव में 1500 के करीब ट्रक हैं। माल ढुलाई परिवहन इस गाँव के लोगों का मुख्य पेशा है. गाँव का अमूमन हर व्यक्ति इस व्यवसाय से जुड़ा हुआ है. तीन दशक पहले यह स्थिति नहीं थी. उस समय यह गाँव भी आम भारतीय गाँवों की तरह गरीब और पिछड़ा हुआ था. लेकिन स्थिति में व्यापक बदलाव तब आया जब यहाँ गुजरात मिनरल देवलपमेंट कोर्पोरेशन GMDC की स्थापना हुई और खनिज पदार्थों का उत्पादन शुरू हुआ.


रामजी करसन इस गाँव के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपना खुद का ट्रक ख़रीदा था. यह सन 1980 के आसपास की बात होगी. उन्होने मस्कट में काम करके कमाए अपने सारे रूपये ट्रक खरीदने के पीछे लगा दिए थे. उन्होने GMDC के लिए माल ढुलाई करना शुरू किया. जल्द ही उनकी देखा देखी कई और लोग इस व्यवसाय में जुड़ने लगे, क्योंकि वर्षा की कमी की वजह से खेती में भी कोई कमाई नही रह गई थी.

धीरे धीरे गाँव में ट्रकों का जमावड़ा होना शुरू हो गया. फिर ऐसा क्या हुआ कि इस गाँव को विधवाओं का गाँव कहा जाने लगा?

वास्तव में हुआ यूँ कि ट्रक खरीदने वाले ज्यादातर लोग आम किसान थे, जिन्हे वाहन चलाने का कोई खास अनुभव नही होता था. ये लोग बहुत गरीब थे और माल ढुलाई के लिए स्वयं ही ट्रक चलाते थे. उस समय के खराब राजमार्ग, अनुभव की कमी, तथा काम के दबाव की वजह से सडक दुर्घटनाएँ एक आम बात होती थी.

इस गाँव के लगभग हर घर के किसी ना किसी पुरूष सदस्य की मौत सडक दुर्घटना में हुई है. और फिर 26 जनवरी 2001 को आए विनाशक भूकंप में यहाँ के सैंकड़ो लोगों ने अपनी जान गँवा दी थी और उनमें भी ज्यादातर पुरूष ही थे. इसलिए इस गाँव को विधवाओं का गाँव कहा जाने लगा.

लेकिन अब स्थिति में सुधार आया है. लोग अपने ट्रकों को चलाने के लिए व्यावसायिक ड्राइवर रखने लग गए हैं. लोगों मे जागृति आई है, राजमार्गों का विकास हुआ है, और उत्पादन में बढ़ोत्तरी होने से लोगों को रोज़गार भी मिलने लग गया है.

अब लोग अन्य व्यवसायों में भी हाथ आजमाने लग गए हैं, परंतु फिर भी आज भी इस गाँव के 90% लोग माल ढुलाई का ही व्यवसाय करते हैं. लेकिन सुखद स्थिति यह है कि नए लोग अब भूलने लग गए हैं कि यह गाँव कभी विधवाओं के गाँव के नाम से कुख्यात था.





पंकज बेंगाणी

श्री गोलवलकर गुरुजी एवं डाक्टर सैफुद्दीन जिलानी कि भेंटवार्ता

प्रश्न : देश के समक्ष आज जो संकट मुँह बाए खड़े हैं, उन्हें देखते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूँढ़ना, क्या आपको आवश्यक प्रतीत नहीं होता?

उत्तर : देश का विचार करते समय मैं हिन्दू और मुसलमान इस स्वरूप में विचार नहीं करता। परन्तु इस प्रश्न की ओर लोग आज कल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं। हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिध्द करने में लिप्त है। इस परिस्थिति को समाप्त करने का केवल एक ही उपाय है। वह है राजनीति की ओर देशहित, और केवल देशहित की ही दृष्टि से देखना। उस स्थिति में, वर्तमान सभी समस्याएँ देखते ही देखते हल हो जायेंगी।

हाल ही में मैं दिल्ली गया था। उस समय अनेक लोग मुझ से मिलने आये थे। उनमें भारतीय क्रान्ति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे। संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है। परन्तु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण, कुछ मामलों में मैं मध्यस्थता करूं, इस हेतु वे मुझसे मिलने आये थे। उनसे मैंने एक सामान्य-सा प्रश्न पूछा, 'आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये इसी का विचार किया करते हो। परन्तु दलीय निष्ठा, दलीय हितों का विचार करते समय, क्या आप सम्पूर्ण देश के हितों का भी कभी विचार करते हो? इस सामान्य से प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर देने के लिए कोई सामने नहीं आया। समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ-साफ कह सकते थे। किन्तु उन्होंने नहीं कहा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल, समग्र देश का विचार नहीं करता। मैं समग्र देश का विचार करता हूँ। इसलिए मैं हिन्दुओं के लिये कार्य करता हूँ। परन्तु कल यदि हिन्दू भी देश के हितों के विरुध्द जाने लगे, तो उनमें मेरी कौन-सी रुचि रह जायेगी?

रही मुसलमानों की बात। मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित माँगे पूरी की जानी चाहिए। परन्तु जब चाहे तब विभिन्न सहूलियतों और विशेषाधिकारों की माँगे करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की माँग उठाई गई, जैसा कि प्रकाशित हुआ है। एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर चांद वाला हरे रंग का पाक झण्डा लहराने की बात की। परन्तु भारतीय व सच्चे मुसलमानों के द्वारा इसका खण्डन भी नहीं किया गया है। ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करने वालों को संतप्त होना आवश्यक है।

उर्दू के आग्रह का ही विचार करें। पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रान्तों के मुसलमान अपने-अपने प्रान्तों की भाषाएँ बोला करते, उन्हीं भाषाओं में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है। उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है। मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई। इस्लाम के साथ उसका रत्ती भर का भी संबंध नहीं है। पवित्र कुरान अरबी में लिखा है। अत: मुसलमानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो तो वह अरबी ही होगी। ऐसा होते हुए भी, आज उर्दू का इतना आग्रह क्यों? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहारे वे मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं। यह संभावना नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देशहितों के विरुध्द की जायेगी।

कुछ मुसलमान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है। सच पूछा जाए, तो मुसलमानों का रुस्तम से क्या संबंधा? रुस्तम तो इस्लाम के उदय पूर्व ही हुआ था। वह कैसे उनका राष्ट्र-पुरुष हो सकता है? और फिर प्रभु रामचन्द्रजी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?

पाकिस्तान ने पाणिनि की पांच हजारवीं जयंती मनाई! इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीं पाणिनि का जन्म हुआ था। यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनि उनके पूर्वजों में से एक है, तो फिर भारत के 'हिन्दु मुसलमान' भी - मैं उन्हें 'हिन्दु मुसलमान' कहता हूँ - पाणिनि, व्यास, वाल्मीकि, राम, कृष्ण आदि को अभिमानपूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?

हिन्दुओं में से ऐसे अनेक लोग हैं, जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के अवतार नहीं मानते। फिर भी वे उन्हें महापुरुष मानते हैं, अनुकरणीय मानते हैं। इसलिए मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। परन्तु क्या उन्हें राष्ट्र-पुरुष नहीं माना जाना चाहिए? हमारे धर्म और तत्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिन्दू और मुसलमान समान ही हैं। ऐसी बात नहीं है कि ईश्वरी सत्य का साक्षात्कार केवल हिन्दू ही कर सकता है। अपने धर्ममत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है।

श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें। यह उदाहरण वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है। एक अमेरिकी व्यक्ति उनके पास आया और उनसे प्रार्थना की कि उसे हिन्दू बना लिया जाए। इस पर शंकराचार्य जी ने उससे पूछा कि वह हिन्दू क्यों बनना चाहता है? उसने उत्तर दिया, कि ईसाई धर्म से उसे शांति प्राप्त नहीं हुई है। आध्यात्मिक तृष्णा अभी अतृप्त ही है।

इस पर शंकराचार्य जी ने उससे कहा, 'क्या तुमने सचमुच पहले ईसाई धर्म का प्रामाणिकतापूर्वक पालन किया है? तुम यदि इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके होगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शांति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ।'

हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है। हमारा धर्म, धर्म -परिवर्तन न कराने वाल धर्म है। धर्मान्तरण तो प्राय: राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं। इस तरह का धर्म-परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है। हम कहते हैं - 'यह सत्य है! तुम्हें जँचता हो तो स्वीकार करो अन्यथा छोड़ दो।'

दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुराई में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिये आये। मुस्लिम-समस्या पर वे मुझसे चर्चा करना चाहते थे। मैंने उनसे कहा - ''आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनन्द हुआ। मुसलमानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण उन्होंने जानना चाहा तो मैं उनसे बोला, '' यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं और हम सब उनके वंशज हैं। आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें। परन्तु राष्ट्र के मामले में सबको एक होना चाहिए। राष्ट्रहित के लिए बाधाक सिध्द होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की माँग बन्द होनी चाहिए।
हम हिन्दू हैं इसलिए हम विशेष सहूलियतों के अधिकारों की कभी बात नहीं करते। ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि 'हमें अलग होना है', 'हमें अलग प्रदेश चाहिए' तो यह कतई सहन नहीं होगा।

ऐसी बात नहीं कि यह प्रश्न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही है। यह समस्या तो हिन्दुओं के बीच भी है। जैसे हिन्दू-समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियाँ हैं। अनुसूचित जातियों में कुछ लोगों ने डा. अम्बेडकर के अनुयायी बन कर बौध्द धर्म ग्रहण किया। अब वे कहते हैं - 'हम अलग हैं।' अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें माँग रहा है। इससे अपने देश के अनेक टुकड़े हो जायेंगे और सर्वनाश होगा। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। कुछ जैन-मुनि मुझसे मिले। उन्होंने कहा, ''हम हिन्दू नहीं हैं। अगली जनगणना में, हम स्वयं को जैन के नाम दर्ज करायेंगे।'' मैंने कहा, ''आप आत्मघाती सपने देख रहे हो!'' अलगाव का अर्थ है देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात! सर्वनाश!!

जब प्रत्येक बात का विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से ही करने लगते हैं, तो अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। किन्तु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एक संघ बन सकता है। फिर हम सम्पूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं।

इस प्रकार के उत्तर की मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। श्रीगुरुजी के व्यापक दृष्टिकोण को देख मैं विस्मय से विमुग्ध हो उठा। मेरे द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में, श्रीगुरुजी ने देश की सभी समस्याओं का समावेश किया। साथ ही किया उसकी दुर्बलताओं का अचूक निर्देश। भारतीय मुसलमानों के बारे में श्रीगुरुजी ने ठीक-ठीक निदान किया और उस पर सुझाया अपना रामबाण उपाय भी।

प्रश्न : भौतिकवाद और विशेषत: माक्र्सवाद से अपने देश के लिए खतरा पैदा हो गया है। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?

उत्तर : यही प्रश्न कश्मीर के एक सज्जन ने मुझसे किया था। उनका नाम सम्भवत: जागिर अली है। अलीगढ़ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास स्थान पर वे मुझसे मिले। उन्होंने मुझसे कहा, ''नास्तिकता और माक्र्सवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील है। अत: ईश्वर पर विश्वास रखने वाले हम सभी को चाहिए कि हम सामूहिक रूप में इस खतरे का मुकाबला करें।''

मैंने कहा, ''मैं आपसे सहमत हूँ। परन्तु कठिनाई यह है कि हम सबने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है। आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं, ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं। बौध्द लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं, जो कुछ है वह निर्वाण ही है, जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है। हममें से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाये। इसके लिए आपके पास क्या कोई उपाय है?''

मुझसे चर्चा करने वाले सज्जन सूफी थे। मेरी यह धारणा थी कि सूफी पंथी ईश्वरवादी और विचारशील हुआ करते हैं। मेरे प्रश्न का उन्होंने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जाएँगे; क्योंकि उन्होंने कहा, 'तो फिर आप सब लोग इस्लाम ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?''

मैंने कहा, ''फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मुझमें निष्ठा है इसलिए मैं यदि आपसे कहूँ कि आप हिन्दू क्यों नहीं बन जाते, तो? यानी समस्या जैसी की वैसी रह गयी। वह कभी हल नहीं होगी।''

इस पर उन्होंने मुझसे पूछा, ''तो फिर इस पर आपकी क्या राय है?''

मैं बोला, ''सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें। एक ऐसा सर्वभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिन्दुओं का या केवल मुसलमानों का ही हो ऐसी बात नहीं। इस तत्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या और कुछ। यह तत्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीय शक्ति है। वही सत्य है, वही आनन्द है, वही सृजन, रक्षण और संहारकर्ता है। अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित रूप है। अन्तिम समय का यह मूलभूत रूप किसी धर्म विशेष का नहीं अपितु सर्वमान्य है। तो यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है। सभी धर्म वस्तुत: ईश्वर की ही ओर उन्मुख करते हैं। अत: यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमान, ईसाई और हिन्दुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं। एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिए।''

इस पर उन जागिर अली महोदय के पास कोई उत्तर नहीं था। दुर्भाग्य उनसे हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गयी।

प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच आपसी सद्भाव बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बड़े झगड़े होते ही रहते हैं। इन झगड़ों को मिटाने के लिए आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर : अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण आप हमेशा बताते हैं। वह कारण है - गाय। दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते। परिणामत: देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है। मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिए कोई कारण दिखाई नहीं देता। इस्लाम धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता। पुराने जमाने में हिन्दुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा। अब वह क्यों चलना चाहिए?

इसी प्रकार की अनेक छोटी-बड़ी बातें हैं। आपस के पर्वों-त्यौहारों में हम क्यों सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यन्त उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करने वाला त्यौहार है। मान लीजिए कि इस त्यौहार के समय किसी मुस्लिम बन्धु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन होता है? इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाना चाहिए। मैं आप पर रंग छिड़कूं, आप मुझ पर छिड़कें। हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मोहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते आ रहे हैं। इतना ही नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों-त्यौहारों में मुसलमानों के साथ हमारे लोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं।

किन्तु हमारी सत्यनारायण की पूजा में हम यदि कुछ मुसलमान बन्धुओं को आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमण्डल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वर के मंदिर में ले गये। मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान-सम्मान किया किन्तु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने वह प्रसाद फेंक दिया। उसने ऐसा क्यों किया? प्रसाद ग्रहण करने मात्र से वह धर्मभ्रष्ट तो होने वाला नहीं था! इसी तरह की छोटी-छोटी बातें हैं। अत: पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए।

हमें जो वृत्ति अर्थप्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं। अन्य लोग जो कुछ करते हैं उसे सहन करना सहिष्णुता है। परन्तु अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसके प्रति आदरभाव रखना सहिष्णुता से ऊँची बात है। इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिए। हमें सबके विषय में आदर है। यही मानवता के लिए हितकर है। हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं, अपितु सम्मानवाद है। दूसरों के मतों का आदर करना हम सीखें, तो सहिष्णुता स्वयमेव चली आयेगी।

प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिए आगे आने की योग्यता किसमें है? राजनीतिक नेता, शिक्षा शास्त्री या धार्मिक नेता में?

उत्तर : इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम सबसे अन्त में लगता है। धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा। आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यन्त संकुचित मनोवृत्ति के हैं। इस काम के लिए नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है, जो लोग धार्मिक तो हों किन्तु राजनीतिक नेतागिरी न करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का ही विचार सदैव जागृत रहा हो, ऐसे लोग ही यह कार्य कर सकते हैं। धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। धार्मिकता होनी ही चाहिए। रामकृष्ण मिशन को ही लें। यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है। अत: आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासना विषयक विभिन्न श्रध्दाओं को नष्ट न कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाए रखें और उन्हें वृध्दिगत होने दें।

राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्हीं से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। जातियों, पंथों पर तो वे जोर देते ही हैं, साथ ही भाषा, हिन्दू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं। परिणामत: अपनी समस्याएँ अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं। जाति संबंधी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं। दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है, जब कि चाहिए तो यह था कि सच्चे विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते। परन्तु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है। इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथों में है। जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गये हैं। अत: हमें लोगों को जागृत करना चाहिए।

दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिए, अपितु ऐसे सत्पुरुषों का अनुकरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीन हैं, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है।

प्रश्न : क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य-निर्माण का उत्तरदायित्व, बहुसंख्य समाज के रूप में हिन्दुओं पर है?

उत्तर : हाँ, मुझे यही लगता है। परन्तु, कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिए। अपने नेतागण सम्पूर्ण दोष हिन्दुओं पर लाद कर मुसलमानों को दोषमुक्त कर देते हैं। इसके कारण जातीय उपद्रव कराने के लिए, अल्पसंख्यक समाज यानी मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिए।

प्रश्न : आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन-से कदम उठाये जाने चाहिएँ?

उत्तर : इस तरह से एकदम कुछ कहना कठिन है। बहुत ही कठिन है। फिर भी सोचा जा सकता है। व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है। आज जैसी राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थ में धर्म-शिक्षा। लोगों को इस्लाम का, हिन्दू धर्म का ज्ञान करायें। सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं, यह लोगों को सिखाया जाये।

दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है वैसा ही हम पढ़ाएँ। आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है। मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बताएँ। परन्तु साथ में यह भी बताएँ कि यह आक्रमण भूतकालीन है और विदेशियों ने किया है। मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं है। परन्तु, जो सही है उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, वही आज पढ़ाया जाता है। सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। अन्तत: वह सामने आता ही है और उससे लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इतिहास जैसा है वैसा ही पढ़ाया जाये। अफजलखाँ को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ। कहो कि एक विदेशी आक्रमक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण सम्बन्धों के कारण यह घटना हुई। यह भी बतायें कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिए हमारी परम्परा अफजलखाँ की नहीं है। परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। इतिहास के विकृतिकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चुका हूँ और आज भी ऐसे धिक्कारता हूँ।

प्रश्न : भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए तो क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?

उत्तर : भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गयी है। किन्तु इस मामले में सम्भ्रम क्यों होना चाहिए? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिन्दू बनाना तो है नहीं? हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं। अत: इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव-समूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिए हम सबकी आकांक्षाएँ भी एक समान हैं - इसे समझना ही सही अर्थ में भारतीयकरण है।

भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पध्दति त्याग दें। यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं। हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पध्दति, सभी मानव जातियों के लिए सुविधाजनक नहीं।

श्री जिलानी : गुरुजी! आपकी बात सही है। बिलकुल सौ फीसदी सही है। अत: इस स्पष्टीकरण के लिए मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ।

श्री गुरुजी : फिर भी, मुझे संदेह है कि ये बातें मैं सबके समक्ष स्पष्ट कर सका हूँ या नहीं।

श्री जिलानी : कोई बात नहीं। आपने अपनी ओर से यह बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढ़ने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसन्द करेंगे?

श्रीगुरुजी : केवल पसन्द ही नहीं करूँगा, मैं तो ऐसी भेंट का स्वागत करूंगा।

डा. सैफुद्दीन जिलानी: वर्तमान पू. सरसंघचालक मा. सुदर्शन जी के द्वारा आह्वान कि ''इस्लाम का भारतीयकरण'' के बीज में पू. श्री गुरुजी का दर्शन व चिन्तन ही है। पिछले तीन वर्षों में १३० से अधिक मुस्लिम सम्मेलनों में हजारों-हजार मुस्लिमों ने सम्मिलित होकर राष्ट्रीयता के इस चिन्तन को राष्ट्रव्यापी मुस्लिम आन्दोलन .... एक नयी राह के रूप में रोशन किया है। बीज अंकुरित हो के पौधो का रूप ग्रहण कर रहा है। सभी समस्याओं का समाधान सनातन सत्य एवं राष्ट्रीयता के आधार पर निकल रहा है। आधार है प्रत्यक्ष संवाद।
व्यक्ति एवं समाज दोनो का विकास जिसमें निहित है वह है, विचार। मौलिक विचार ही पाथ प्रदर्शक का कार्य करतें हैं। मैं यदि इतिहास के पन्नों में जाकर देखूं तब तो यह बात और भी मजबूती से मेरे मन में
बैठती है कि विचार वह बीज मंत्र है जिससे कोई भी कारण साध्य है।

नया दौर: परिवर्तन से प्रवर्तन तक

आरम्भ है एक परिवर्तन का। परिवर्तन स्वयम में तथा परिसर में जहाँ मैं रहने लगा हूँ। कई बार यह सोच कर कि मेरे विचार एक चिंगारी की भांति समाज में ज्वलंत प्रश्न ना उठा दें मैं अब तक मूक रह कर केवल ताकता रहा।
अब और नहीं.... ।