खुशबू
उसके गुजरने के बाद,
मेरे करीब से गुजरता हुआ लम्हां थम सा गया,
मेरे दिमाग में बस वो रह गई....
और उसके जुल्फों की "खुशबू".
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
२/०७/१९९७
Friday, January 1, 2010
धर्मयुद्ध
धर्मयुद्ध
इस किताब के अंतिम पृष्ठों से
न जाने क्यों "सड़ांध" सी,
श्वास छिद्रों में प्रविष्ट होती है,
पागल कर देती है अपने,
अनदेखे अनजान कड़े हाथों से.
दबा कर मेरे स्वप्नों का गला,
निकाल देती हैं रस,
यादों के मधुर उपवन से
कुंठित किये दे रही हैं,
समुचित सुद्रिश विचारधारा को,
जो कभी "अरिहंता" कही जाती थी,
अरि के नाम पर आज मेरे अपने,
विचारों के सैनिक, करोडो कि संख्या में,
मुझसे ही युद्ध करने को हैं तत्पर,
अब मुझे युद्धरत होना होगा,
अपनों से, अपने विचारों से, अपने अस्तित्व से,
जो कौरव सेना कि तरह घेरे खड़ी हैं,
मेरी आत्मा को आक्रमण को तत्पर,
आज मुझे एक "माधव" की आवश्यकता है,
जो आधुनिक "गीता" लिखे,
आत्मयुद्ध पर,
न कि धर्मयुद्ध पर..........
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
१९-१०-१९९५
इस किताब के अंतिम पृष्ठों से
न जाने क्यों "सड़ांध" सी,
श्वास छिद्रों में प्रविष्ट होती है,
पागल कर देती है अपने,
अनदेखे अनजान कड़े हाथों से.
दबा कर मेरे स्वप्नों का गला,
निकाल देती हैं रस,
यादों के मधुर उपवन से
कुंठित किये दे रही हैं,
समुचित सुद्रिश विचारधारा को,
जो कभी "अरिहंता" कही जाती थी,
अरि के नाम पर आज मेरे अपने,
विचारों के सैनिक, करोडो कि संख्या में,
मुझसे ही युद्ध करने को हैं तत्पर,
अब मुझे युद्धरत होना होगा,
अपनों से, अपने विचारों से, अपने अस्तित्व से,
जो कौरव सेना कि तरह घेरे खड़ी हैं,
मेरी आत्मा को आक्रमण को तत्पर,
आज मुझे एक "माधव" की आवश्यकता है,
जो आधुनिक "गीता" लिखे,
आत्मयुद्ध पर,
न कि धर्मयुद्ध पर..........
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
१९-१०-१९९५
परिवर्तन
परिवर्तन
परिवर्तन एक प्रगति है
होती रहती है हर समय हर पल,
असमय भी असामाजिक भी,
कभी यह अप्रासंगिक भी होती है,
जानते हैं हम यह कब अकेली होती है,
और कब विचारों के बवंडरों के साथ.
जन्म, जीवन, कान्तकाया, फिर मृत्यु,
और फिर पुनर्जन्म....
सोचता हूँ क्या एकांत भी परिवर्तनशील होते हैं?
होते हैं शायद...
तभी तो मैं एकांत में बैठा सोचता हूँ
जीवन के अस्तित्व के बारे में.
निष्चल सा, यादों की चुभती चट्टानों पर बैठकर,
क्या पाया और क्या खोता जा रहा हूँ
तिल तिल जलकर प्रेमाग्नि में उसके,
क्या मैं कंचन बन पाऊँगा या भस्म,
जो भी ह़ो यह एक परिवर्तन होगा,
अथाह सागर की तलहटी से,
मोती निकाल लाने जैसा,
देखना चाहता हूँ कितने कतरे खून
बहा सकता हूँ मैं शोलों से दहकते हुए.
सभी जानते हैं हर बूँद काफी है,
एक पूरे शहर को खाक करने के लिए,
पर मैं चाहता हूँ हर बूँद में ह़ो,
परिवर्तन और जम जाए एकांत में,
बन जाये एक मूर्त रूप मेरे प्रेम का
एकांत में, अथाह सागर में,
प्रज्वलित अग्नि में, काली निशा में,
अपार अंतरिक्ष में,
और मेरे, सिर्फ मेरे "एकांत" में.
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
१८-०९-१९९५
परिवर्तन एक प्रगति है
होती रहती है हर समय हर पल,
असमय भी असामाजिक भी,
कभी यह अप्रासंगिक भी होती है,
जानते हैं हम यह कब अकेली होती है,
और कब विचारों के बवंडरों के साथ.
जन्म, जीवन, कान्तकाया, फिर मृत्यु,
और फिर पुनर्जन्म....
सोचता हूँ क्या एकांत भी परिवर्तनशील होते हैं?
होते हैं शायद...
तभी तो मैं एकांत में बैठा सोचता हूँ
जीवन के अस्तित्व के बारे में.
निष्चल सा, यादों की चुभती चट्टानों पर बैठकर,
क्या पाया और क्या खोता जा रहा हूँ
तिल तिल जलकर प्रेमाग्नि में उसके,
क्या मैं कंचन बन पाऊँगा या भस्म,
जो भी ह़ो यह एक परिवर्तन होगा,
अथाह सागर की तलहटी से,
मोती निकाल लाने जैसा,
देखना चाहता हूँ कितने कतरे खून
बहा सकता हूँ मैं शोलों से दहकते हुए.
सभी जानते हैं हर बूँद काफी है,
एक पूरे शहर को खाक करने के लिए,
पर मैं चाहता हूँ हर बूँद में ह़ो,
परिवर्तन और जम जाए एकांत में,
बन जाये एक मूर्त रूप मेरे प्रेम का
एकांत में, अथाह सागर में,
प्रज्वलित अग्नि में, काली निशा में,
अपार अंतरिक्ष में,
और मेरे, सिर्फ मेरे "एकांत" में.
राजेश अमरनाथ पाण्डेय
१८-०९-१९९५
Sunday, December 27, 2009
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