Friday, January 1, 2010

धर्मयुद्ध

धर्मयुद्ध
 इस किताब के अंतिम पृष्ठों से
न जाने क्यों "सड़ांध" सी,
श्वास छिद्रों में प्रविष्ट होती है,

पागल कर देती है अपने,
अनदेखे अनजान कड़े हाथों से.
दबा कर मेरे स्वप्नों का गला,

निकाल देती हैं रस,
यादों के मधुर उपवन से
कुंठित किये दे रही हैं,
समुचित सुद्रिश विचारधारा को,
जो कभी "अरिहंता" कही जाती थी,

अरि के नाम पर आज मेरे अपने,
विचारों के सैनिक, करोडो कि संख्या में,
मुझसे ही युद्ध करने को हैं तत्पर,

अब मुझे युद्धरत होना होगा,
अपनों से, अपने विचारों से, अपने अस्तित्व से,
जो कौरव सेना कि तरह घेरे खड़ी हैं,
मेरी आत्मा को आक्रमण को तत्पर,

आज मुझे एक "माधव" की आवश्यकता है,
जो आधुनिक "गीता" लिखे,
आत्मयुद्ध पर, 
न कि धर्मयुद्ध पर.......... 

राजेश अमरनाथ पाण्डेय 
१९-१०-१९९५   

4 comments:

Udan Tashtari said...

आज मुझे एक "माधव" की आवश्यकता है,
जो आधुनिक "गीता" लिखे,
आत्मयुद्ध पर,
न कि धर्मयुद्ध पर..........


-सोचने को विवश करती रचना!!

Rajesh Amarnath Pandey said...

धन्यवाद ।

Rajesh Amarnath Pandey said...

धन्यवाद ।

Rajesh Amarnath Pandey said...
This comment has been removed by the author.